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________________ अध्याय-5 प्रतिक्रमण आवश्यक का अर्थ गांभीर्य षडावश्यकों में प्रतिक्रमण चतुर्थ आवश्यक है। यह सभी में प्रधान एवं प्रमुख है इसलिए वर्तमान व्यवहार में छहों आवश्यकों की संयुक्त क्रिया को ही प्रतिक्रमण कहा जाता है। दैनिक कर्त्तव्य रूप इन आवश्यक क्रियाओं का पालन करते हुए आम तौर पर सभी परम्पराओं में यही बोला जाता है कि मैं प्रतिक्रमण कर रहा हूँ, प्रतिक्रमण करने जा रहा हूँ, आज संवत्सरी का प्रतिक्रमण करना है। किन्तु आवश्यक कर रहा हूँ या आवश्यक करना चाहिए ऐसे शब्दों का प्रयोग प्रचलन में नहीं है। वस्तुतः प्रतिक्रमण आवश्यक का एक स्वतन्त्र अंग है। आत्म संशुद्धि एवं दोष परिष्कार का जीवन्त साधन है, निर्मल विचारों को संपुष्ट करने का परमामृत है तथा अपनी आत्मा को परखने एवं निरखने का अमोघ उपाय है। शास्त्रीय दृष्टिकोण से संयम धर्म की साधना करते हुए प्रमादवश किसी तरह की स्खलना हो जाए या व्रत आदि का अतिक्रमण हो जाए तो उसे मिथ्या समझकर अन्तर्भावना से उसकी निन्दा करना, उस अकृत्य के लिए पश्चात्ताप करना और भविष्य में उन दोषों का सेवन न करने के लिए जागरूक रहना प्रतिक्रमण है। प्रतिक्रमण का सम्बन्ध तीनों कालों से है। भूतकाल में किए गए हिंसाजन्य कार्यों) की मन, वचन, काया से गर्हा करना भूतकाल का प्रतिक्रमण है, वर्तमान में संभावित सावद्य योगों का मन-वचन-काया से संवर करना अर्थात सामायिक की आराधना करना वर्तमान का प्रतिक्रमण है तथा अनागत काल के सावद्य योगों का परित्याग करने के लिए प्रत्याख्यान करना भावी प्रतिक्रमण है। प्रतिक्रमण शब्द का अर्थ विन्यास प्रतिक्रमण शब्द की व्युत्पत्ति 'प्रति+क्रमण = प्रतिक्रमण' ऐसी है। इस व्युत्पत्ति के अनुसार उसका अर्थ 'पीछे फिरना' इतना ही होता है, परन्तु रूढ़ि प्रवाह से ‘प्रतिक्रमण' शब्द चौथे आवश्यक का तथा छह आवश्यक समुदाय
SR No.006248
Book TitleShadavashyak Ki Upadeyta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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