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वन्दन आवश्यक का रहस्यात्मक अन्वेषण... 229
लोकोत्तर सिद्धियाँ वैसे ही स्वतः प्राप्त हो जाती है जैसे गेहूँ की खेती करने वालों को खाखला (घास, तृण आदि) प्राप्त हो जाता है।
8. साधना का सशक्त साधन- परमेष्ठी पद की भाव वंदना करते समय परमेष्ठी का पवित्र-निर्मल स्वरूप ध्यान में आने से स्वयं में परमेष्ठी पद प्राप्त करने की प्रेरणा उत्पन्न होती है। भाव द्वारा परमेष्ठी स्वरूप का साक्षात्कार भी होता है, जिसके परिणामस्वरूप उनके गुण वंदन - कर्त्ता के जीवन रूपी उपवन में विकसित होने लगते हैं। प्रवचनसारोद्धार में साधु पुरुषों की वन्दना और पर्युपासना के दस लाभ बतलाये हैं
1. श्रवण फल 2. ज्ञान फल 3. विज्ञान फल 4 5. संयम फल 6. संवर फल 7. तप फल 8. निर्जरा फल 9. 10. सिद्धिगमन फल। 105
उल्लेख्य है कि तृतीय आवश्यक में वंदन से अभिप्रेत गुरुवंदन से है न कि अरिहंत आदि से। यहाँ परमेष्ठी पद का ग्रहण प्रसंगवश ही किया गया है, क्योंकि इसके अन्तिम तीन पद गुरु स्थानीय ही हैं। दूसरे, पंच परमेष्ठी के पाँचों पदों के आरम्भ में 'णमो' शब्द वंदन का ही पर्याय है। अतः मोक्षमार्ग में अग्रसर होने हेतु परमेष्ठी पद का भावपूर्वक वंदन आवश्यक है।
यदि शारीरिक लाभ की दृष्टि से मनन किया जाए तो जिस मुद्रा के द्वारा वन्दन किया जाता है उसके फलस्वरूप • आँतों और जठर की निर्बलता, यकृत की विकृति एवं स्वादु पिण्ड की शिथिलता दूर होती है। • उदर और हृदय के सभी स्नायु बलवान होते हैं। • वात विकार, मंदाग्नि, अनिद्रा, अजीर्ण आदि रोगों का शमन होता है तथा इसके अभ्यास से जठराग्नि प्रदीप्त होती है । आधुनिक सन्दर्भ में वंदन आवश्यक की प्रासंगिकता
जैन शास्त्रों में वंदन को कर्म निकंदन का प्रमुख हेतु माना है। षडावश्यक में वंदन आवश्यक का तीसरा स्थान है। यदि मनोवैज्ञानिक एवं वैयक्तिक संदर्भ में इसकी उपादेयता का आकलन करें तो निम्न तथ्य ज्ञात होते हैं- वंदन करने से आत्मपरिणाम निर्मल बनते हैं, अहंकार का नाश होता है, विनय एवं लघुता गुण में वृद्धि होती है तथा शक्तियों का प्रवाह ऊर्ध्वगामी बनता है । गुरुजनों एवं बड़ों के आशीर्वाद से आध्यात्मिक एवं भौतिक विकास होता है और आन्तरिक प्रसन्नता की प्राप्ति होती है जिससे मानसिक शांति मिलती है। वंदन आवश्यक
प्रत्याख्यान फल अक्रिया फल और