SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 265
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वन्दन आवश्यक का रहस्यात्मक अन्वेषण .... ...207 एवं छठे प्रत्याख्यान आवश्यक में प्रवेश करने से पूर्व - ऐसे चार बार कृतिकर्म ( द्वादशावर्त्त वन्दन) होता है। दिगम्बर परम्परा में आलोचना भक्ति करने से पूर्व, प्रतिक्रमण भक्ति करने से पूर्व, वीर भक्ति करने से पूर्व एवं चतुर्विंशति तीर्थंकर भक्ति करने से पूर्वऐसे चार बार कृतिकर्म होता है। 72 स्वाध्याय में तीन कृतिकर्म कैसे? श्वेताम्बर परम्परा में स्वाध्याय प्रस्थापन, स्वाध्याय प्रवेदन एवं कालप्रवेदन- ऐसे तीन बार कृतिकर्म होता है। दिगम्बर मत में स्वाध्याय के प्रारम्भ में श्रुतभक्ति करने से पूर्व, आचार्य भक्ति करने से पूर्व तथा स्वाध्याय की समाप्ति में श्रुतभक्ति करने से पूर्व ऐसे तीन कृतिकर्म होते हैं। 73 पूर्वाह्न के सात और अपराह्न के सात - कुल 14 कृतिकर्म जानने चाहिए। पुनश्च दिगम्बर मान्यता की अपेक्षा स्वाध्याय के बारह, वन्दना के छह, प्रतिक्रमण के आठ और योगभक्ति के दो-ऐसे अहोरात्र सम्बन्धी अट्ठाईस कृतिकर्म होते हैं। सुगुरुवंदनसूत्र, भक्तिपाठ आदि क्रियाकर्म आवश्यक क्यों ? ग्रन्थकारों ने एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न उठाया है कि मोक्ष का साधक तो आत्मध्यान ही है, तब मुमुक्षु को आत्मध्यान ही करना चाहिए, वन्दनासूत्र, भक्तिपाठ आदि क्रियाओं की क्या आवश्यकता है? इसका उत्तर यह है कि आत्मध्यान की सिद्धि हेतु चित्त को एकाग्र करना परमावश्यक है और चित्त एकाग्रता के लिए बाह्य क्रियाएँ आवश्यक हैं। साधु और गृहस्थ के लिए किया गया है। षडावश्यक का निरूपण इसी दृष्टि से किया गया है। इसके माध्यम से वे निरूद्यमी और प्रमादी नहीं होते हैं। वर्तमान में ऐसे कई लोग हैं जो क्रियाकाण्ड को व्यर्थ समझकर न आत्मसाधना करते हैं और न क्रियाकर्म ही करते हैं। कुछ ऐसे व्यक्ति भी हैं जो आत्मा की बात भी नहीं करते हैं और श्रावकोचित क्रियाकाण्ड में फँसे रहते हैं। ये दोनों प्रकार के साधक परमार्थतः मुमुक्षु नहीं हैं। अमृतचन्द्राचार्य ने कहा है- जो कर्मनय के अवलम्बन में तत्पर हैं, उसके पक्षपाती हैं वे डूबते हैं। जो ज्ञान से अनभिज्ञ होते हुए भी ज्ञान के पक्षपाती हैं,
SR No.006248
Book TitleShadavashyak Ki Upadeyta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy