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वन्दन आवश्यक का रहस्यात्मक अन्वेषण ... 205
जैन आराधकों के लिए कृतिकर्म एक परम आवश्यक कृत्य है। यद्यपि इसे अमुक अवसर पर ही करने का विधान है। श्वेताम्बर आचार्यों ने कृतिकर्म के प्रमुख आठ कारण निरूपित किये हैं, जो निम्न है - 68
1. प्रतिक्रमण के समय- प्रतिक्रमण करते समय दो-दो के क्रम से चार बार
द्वादशावर्त्तवन्दन करते हैं, वह प्रतिक्रमण के उद्देश्य से किया जाता है। 2. स्वाध्याय के समय - गुरु मुख से आगम आदि सूत्रपाठों की वाचना ग्रहण करनी हो, तब साधु सामाचारी के अनुसार स्वाध्याय प्रस्थापन, स्वाध्याय प्रवेदन एवं काल प्रवेदन- ऐसे तीन बार गुरु वंदन करना चाहिए।
3. कायोत्सर्ग के समय - योगोद्वहन काल में आयंबिल प्रत्याख्यान को पूर्णकर नीवि प्रत्याख्यान (विगय परिभोग) के लिए कायोत्सर्ग करते हैं, उसे गुरु को वन्दन करने के पश्चात करना चाहिए।
4. अपराध के समय - गुरु के प्रति किसी प्रकार का अपराध हुआ हो, तो कृतिकर्म पूर्वक उनसे क्षमायाचना करनी चाहिए।
5. प्राघूर्णक (अतिथि) मुनियों के आने पर - यदि आगन्तुक (प्राघूर्णक) मुनि ज्येष्ठ हो तो स्थित लघु साधु द्वारा उन्हें वंदन करना चाहिए और अतिथि मुनि कनिष्ठ हो तो उनके द्वारा स्थित ज्येष्ठ मुनियों को वन्दन करना चाहिए। प्राघूर्णक मुनि भी दो तरह के होते हैं
(i) सांभोगिक और (ii) असांभोगिक ।
समान सामाचारी वाले सांभोगिक और इसके विपरीत असांभोगिक कहलाते हैं। यदि आगन्तुक मुनि सांभोगिक एवं ज्येष्ठ हों तो आचार्य की अनुमति लेकर स्थित मुनि उन्हें वन्दन करें। यदि आगन्तुक मुनि असांभोगिक हो तो पहले आचार्य (गुरु) को वन्दन कर उनसे अनुमति लेने के पश्चात आगन्तुक मुनियों को वन्दन करें या उनसे वन्दन करवाएँ। 69
6. आलोचना के समय - स्वेच्छा से गृहीत महाव्रत आदि मूलगुणों एवं समिति-गुप्ति आदि उत्तरगुणों में अतिचार आदि दोष लगे हों और उनसे निवृत्त (पापमुक्त) होने के लिए प्रायश्चित्त आदि स्वीकार करना हो, तो प्रथम गुरुवंदन करके आलोचना आदि करना चाहिए।