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वन्दन आवश्यक का रहस्यात्मक अन्वेषण... 203
किन्तु वर्तमान में दोनों स्थितियों में वंदन नहीं करवाने का ही व्यवहार है। शेष साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका के द्वारा वंदन करवा सकते हैं। रत्नाधिक के द्वारा वंदन न करवाने का मुख्य कारण ज्ञानादि गुण का बहुमान और उचित व्यवहार है। 63
कृतिकर्म कहाँ स्थित होकर करना चाहिए?
जैन विचारणा में गुरुत्व पद का सम्मान करते हुए उनके अत्यन्त निकट उपस्थित होकर वन्दन करने का निषेध किया गया है क्योंकि इससे करस्पर्श, अंगस्पर्श आदि की सम्भावना रहती है जो दोष का कारण है।
गुरु का चारों दिशाओं में जघन्य से साढ़े तीन हाथ का और उत्कृष्ट से तेरह हाथ का अवग्रह होता है स्पष्ट है कि गुरु का आभामण्डल चारों दिशाओं में साढ़े तीन या तेरह हाथ पर्यन्त व्याप्त रहता है। उस परिमित क्षेत्र में गुरु अनुमति पूर्वक प्रवेश करना चाहिए।
गुरुवन्दनभाष्य में स्वपक्ष वालों के लिए साढ़े तीन हाथ एवं परपक्ष वालों के लिए तेरह हाथ दूर रहकर वन्दन करने का निर्देश किया गया है | 64 स्वपक्ष और परपक्ष दोनों दो-दो प्रकार के होते हैं
1. पुरुष की अपेक्षा पुरुष स्वपक्ष है 2. स्त्री की अपेक्षा स्त्री स्वपक्ष है 3. पुरुष की अपेक्षा स्त्री परपक्ष है 4. स्त्री की अपेक्षा पुरुष परपक्ष है। इसके स्पष्टीकरण के लिए निम्न तालिका दृष्टव्य है
स्वपक्ष सम्बन्धी
1. साधु को साधु से
श्रावक को साधु से - साढ़े तीन हाथ दूर रहकर वन्दन करना चाहिए। 2. साध्वी को साध्वी से
श्राविका को साध्वी से साढ़े तीन हाथ दूर खड़े होकर वन्दन करना चाहिए।
परपक्ष सम्बन्धी
1. साध्वी को
साधु से
श्राविका को साधु से - तेरह हाथ का अन्तराल रखते हुए वन्दन करना चाहिए। 2. साधु को साध्वी से