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202... षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में
जैन धर्म विवेक प्रधान है। यहाँ प्रत्येक तथ्य का सूक्ष्म दृष्टि से विचार किया गया है। जैनाचार्य कहते हैं कि वन्दनीय आचार्यादि को जब कभी वन्दन नहीं करना चाहिए, वे निम्न स्थितियों में वन्दन करने योग्य होते हैं1. शान्त भाव में स्थिर हों
2. आसन पर बैठे हुए
हों।
3. उपशान्त अर्थात क्रोधादि से रहित हों।
4. शिष्य को 'छंदेणं' इत्यादि वचन कहने के लिए तत्पर हों । 5. स्वाध्याय आदि में तल्लीन हों।
आवश्यक प्रवृत्ति करते हुए साधु-साध्वियों को वन्दन करना सर्वथा अनुचित है, क्योंकि प्रतिलेखनादि क्रियाओं में व्यस्त साधु यदि गृहस्थ को धर्मलाभ देना चूक जाये तो वन्दन कर्ता के मन में गलत धारणाएँ पनप सकती हैं अतः उक्त निर्देशों के प्रति सचेत रहना चाहिए | 61
वन्दनीय को वन्दन कब नहीं करना चाहिए?
जैन धर्म विनय प्रधान है अतएव शास्त्रकारों ने निर्देश दिया है कि निम्न
परिस्थितियों में पूज्य पुरुषों को वन्दन नहीं करना चाहिए1. प्रवचन आदि धर्मकार्य में व्यस्त हों ।
2. वंदन कर्त्ता की ओर मुख करके बैठे हुए न हों।
3. क्रोध, निद्रा आदि प्रमाद से युक्त हों
4. आहार कर रहे हों।
5. लघुशंका, मलोत्सर्ग आदि शारीरिक कार्य कर रहे हों ।
उपर्युक्त पाँच स्थितियों में वन्दन करने पर क्रमशः निम्न दोष लगते हैं1. धर्म का अन्तराय 2. वन्दन का अनवधारण 3. प्रकोप 4. आहार में अन्तराय और 5. लज्जावश कायिक संज्ञा का अवरोध 162
वन्दना करवाने के अपवाद
जिनमत में उपकारी एवं गुणी पुरुषों को अप्रतिम स्थान प्राप्त है। इसी दृष्टिकोण को लक्ष्य में रखते हुए गुरुवंदनभाष्य में कहा गया है कि दीक्षित माता, दीक्षित पिता, दीक्षित ज्येष्ठ भाई एवं उम्र में अल्प होने पर भी रत्नाधिक (ज्ञानादि गुणों से श्रेष्ठ) हो तो इन चारों के द्वारा मुनि को वंदन नहीं करवाना चाहिए। यदि माता - पितादि गृहस्थ अवस्था में हो तो वंदन करवा सकते हैं,