SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 252
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 194...षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में प्रकृति का उपार्जन करने में हेतुभूत है। ___ऐतिहासिक दृष्टि से कहा जाए तो आगमिक एवं आगमेतर साहित्य में यह सूत्र स्वतन्त्र रूप से प्राप्त नहीं होता है। प्रबोध टीकाकार48 के अनुसार इस सूत्र का 'शाता छे जी' पर्यन्त पाठ आवश्यक मूलसूत्र के तृतीय अध्ययन में गुंफित 'सुगुरुवंदन' के निम्न पाठ का सारांश हो, ऐसा ज्ञात होता है __ "अप्प-किलंताणं बहुसुभेण भे! दिवसो वइक्कंतो? (राई वइक्कंता) जत्ता भे? जवणिज्जं च भे?" आदि। "भात-पाणी का लाभ देना जी"- यह पंक्ति गुरु निमंत्रणसूत्र के स्थान में योजित की गई ज्ञात होती है। गुरु निमंत्रणसूत्र का यह पाठ भगवती आदि सूत्रों में आगत निम्न आलापक के आधार से निर्मित किया गया प्रतीत होता है। 'समणे निग्गंथे फासुएणं एसणिज्जेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं वत्थपडिग्गह-कंबल-पायपुंछणेणं पीढ-फलग-सेज्जा-संथारएणं पडिलाभेमाणे विहरई'। ___ श्री हेमचन्द्राचार्यकृत योगशास्त्र स्वोपज्ञविवरण (पृ. 181) में अतिथिसंविभाग व्रत के प्रसंग में उक्त आलापक का उल्लेख है। इस तरह सुखशाता-पृच्छासूत्र की रचना पूर्वोक्त सूत्रों के आधार पर की गई मालूम होती है। ___ अब्भुट्टिओसूत्र- इसका अपर नाम 'गुरु क्षमापनासूत्र' है। इस सूत्र के द्वारा शिष्य गुरु के प्रति होने वाले छोटे-बड़े समस्त अपराधों की क्षमायाचना करता है। गुरु भी शिष्य से क्षमापना करके क्षमादान देते हैं अत: इसका नाम क्षमापनासूत्र है। इस सूत्र का मूल पाठ ‘अब्भुट्ठिओ' शब्द से शुरू होता है इसलिए अब्भुट्ठिओसूत्र के नाम से भी प्रसिद्ध है। प्रतिदिन गुरुवंदन करते समय प्रथम दो खमासमण देने के पश्चात तथा सुखपृच्छासूत्र द्वारा शाता आदि पूछने के बाद (पदस्थ हो तो पुन: एक खमासमण देकर) वज्रासन में स्थित हो, मस्तक को भूमि पर स्पर्शित करते हुए, बाएं हाथ में धारण की गई मुखवस्त्रिका को मुख के आगे रखकर तथा गुरु के चरणों का स्पर्श कर रहा हूँ ऐसा विचार करते हुए दाएं हाथ को उस दिशा की ओर लम्बा करके यह सूत्र बोला जाता है। प्रतिक्रमण में भी इस सूत्र का उपयोग होता है।
SR No.006248
Book TitleShadavashyak Ki Upadeyta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy