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वन्दन आवश्यक का रहस्यात्मक अन्वेषण... 185 है। दूसरा थोभवंदन करते समय तीन बार 'तिक्खुत्तो' पाठ बोलते हुए पंचांग प्रणिपात करते हैं।
दिगम्बर परम्परा में सम्भवतः फेटा वंदन और द्वादशावर्त्त वंदन ही प्रचलित है। यहाँ द्वादशावर्त्तवन्दन को 'कृतिकर्म' कहा गया है। मूलाचार का अध्ययन करने से यह ज्ञात होता है कि इस परम्परा में देववन्दन, स्वाध्याय, प्रतिक्रमण आदि क्रियाएँ कृतिकर्म पूर्वक सम्पन्न होती हैं। दूसरे, दिगम्बर परम्परा में अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय आदि नव देवता को यह कृतिकर्म किया जाता है। कृतिकर्म काल में दो अवनति, बारह आवर्त्त, चार शिरोनति, तीन शुद्धि और यथाजात-ये बाईस क्रियाकर्म होते हैं। 32
दो अवनति - 'नमस्कारमंत्र' के आदि में एक बार अवनति अर्थात भूमि स्पर्शनात्मक नमस्कार करना तथा चतुर्विंशतिस्तव के आदि में दूसरी बार अवनति अर्थात भूमि स्पर्शनात्मक नमस्कार करना - ये दो अवनति है ।
द्वादश आवर्त्त - नमस्कार मंत्र के उच्चारण के प्रारम्भ में मन, वचन, काया की शुभ प्रवृत्ति होना - ये तीन आवर्त्त, नमस्कारमंत्र की समाप्ति में मन, वचन, काया की शुभ प्रवृत्ति होना - ये तीन आवर्त । इसी तरह चतुर्विंशतिस्तव के प्रारम्भ में मन, वचन, काया की शुभप्रवृत्ति होना - ये तीन आवर्त्त एवं चतुर्विंशतिस्तव की समाप्ति में मन, वचन, काया की शुभ प्रवृत्ति होना - ये तीन आवर्त्त। इस तरह मन-वचन काया की शुभप्रवृत्ति रूप बारह आवर्त्त होते हैं अथवा चारों ही दिशाओं में चार प्रणाम, ऐसे तीन प्रदक्षिणा में बारह हो जाते हैं।
चार शिरोनति- नमस्कार मंत्र के उच्चारण के आदि और अन्त में दोनों हाथों को जोड़कर मस्तक पर लगाना, इसी तरह चतुर्विंशतिस्तव के उच्चारण के आदि और अन्त में बद्धांजलि को मस्तक पर लगाना- ऐसे चार शिरोनति होती है।
यथाजात- जिस आकार में जन्म लिया है, उस मुद्रा से युक्त होकर वन्दन करना, यथाजात कहलाता है।
तीन शुद्धि - मन, वचन, काया की शुद्धि रखना।
इस तरह एक कृतिकर्म में दो अवनति, बारह आवर्त्त, चार शिरोनति, तीन शुद्धि एवं यथाजात - ऐसे बाईस क्रियाकर्म होते हैं। 33