SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 223
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्विंशतिस्तव आवश्यक का तात्त्विक विवेचन ... 165 जाता है। यहाँ ईति शब्द से अतिवृष्टि, अनावृष्टि, तीतर, मूषक, शुक, स्वचक्र भय और परचक्र भय- ये सात प्रकार के उपद्रव जानना चाहिए और भीति शब्द से- जल भय, अग्नि भय, विष भय, विषधर भय, दुष्टग्रह भय, राज भय, रोग भय, रणभय, राक्षसादि भय, रिपु भय, मारि भय, चोर भय और श्वापदादि अर्थात हिंसक पशु आदि का भय समझना चाहिए अथवा मदोन्मत्त हाथी, सिंह, दावानल, सर्प, युद्ध, समुद्र, जलोदर आदि रोग और बंधन- ये आठ प्रकार के बड़े भय और उपलक्षण से अनेक प्रकार के भय जानना चाहिए। इसके अतिरिक्त अशोक वृक्ष, पुष्पवृष्टि, दिव्यध्वनि, चामर, रत्नजड़ित सिंहासन, आभामंडल, दुंदुभिनाद और छत्र- ये आठ प्रतिहार्य सभी में समान होते हैं। संक्षेप में कहें तो सभी तीर्थंकर चौतीस अतिशय से सम्पन्न और प्रभावकता आदि गुणों में समान होते हैं। यह तीर्थंकर पुरुषों का बाह्य स्वरूप है। चौबीस तीर्थंकर देवों की स्तुति करने का मुख्य कारण उनके आभ्यंतर स्वरूप से परिचित होकर आत्मबोध करना है। वे अरिहंत है, भगवान है, धर्म की आदि करने वाले हैं, धर्म रूपी तीर्थ की स्थापना करने वाले हैं और स्वयं संबुद्ध है। वे पुरुषोत्तम, पुरुषों में सिंह के समान, पुरुषों में श्रेष्ठ कमल के समान, पुरुषों में श्रेष्ठ गंधहस्ती के समान, लोकोत्तम, लोक के नाथ, लोक का हित करने वाले, लोक में प्रदीप के समान और लोक में प्रकाश करने वाले हैं। तदुपरांत प्राणी मात्र को अभय देने वाले, अन्तर्चक्षु प्रदान करने वाले, सद्मार्ग दिखाने वाले, स्थिर शरण देने वाले, बोधि- सम्यग्दर्शन प्राप्त कराने वाले, चारित्र धर्म प्रदान करने वाले, धर्म देशना करने वाले, धर्म के नायक, धर्म के सारथी और धर्म के श्रेष्ठ चक्रवर्ती हैं। साथ ही अप्रतिहत ज्ञान और दर्शन को धारण करने वाले, छद्मस्थता से रहित, स्वयं राग-द्वेष को जीतने वाले, भव्य जीवों को राग-द्वेष जीताने वाले, स्वयं संसार समुद्र से तिरने वाले, दूसरों को तारने वाले, स्वयं बोधि को प्राप्त करने वाले, दूसरों को बोधि प्राप्त कराने वाले, स्वयं जन्ममरण से मुक्त होने वाले, दूसरों को संसार दुःख से मुक्त करने वाले, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, शिव, अचल, अरूज, अनंत, अक्षय, अव्याबाध और मोक्ष स्थान को प्राप्त हैं। दानान्तराय, लाभान्तराय, वीर्यान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय, हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा, काम, मिथ्यात्व, अज्ञान, निद्रा,
SR No.006248
Book TitleShadavashyak Ki Upadeyta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy