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156... षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में
कहा गया है उनमें चिह्न (आकार) लोक और कषाय लोक- ये दो नाम पृथक् हैं तथा काल लोक का उल्लेख नहीं है शेष नामों को लेकर दोनों में पूर्ण साम्य है । 48
जिसके द्वारा प्रकाश किया जाता है वह उद्योत कहलाता है। उद्योत दो प्रकार के होते हैं- 1. द्रव्योद्योत और 2 भावोद्योत । अग्नि, चन्द्र, सूर्य, मणि आदि द्रव्य उद्योत हैं क्योंकि ये घट आदि वस्तुओं को प्रकाशित करते हुए भी उसमें रहे हुए अन्य पदार्थों को प्रकाशित नहीं कर सकते हैं। ये स्वल्प क्षेत्र में ही प्रकाश कर सकते हैं तथा मेघादि के द्वारा सूर्यादि के प्रकाश को रोका भी जा सकता है।
ज्ञान भाव उद्योत है। भावोद्योत मति आदि पाँच प्रकार का कहा गया है उनमें केवलज्ञान परमार्थत: उद्योत है क्योंकि वह अप्रतिघाती और सर्वगत है अर्थात केवल ज्ञान रूप प्रकाश सर्व लोक - अलोक को प्रकाशित करता है, किसी राहु आदि से बाधित नहीं होता है और सर्वत्र व्याप्त होकर रहता है। 149
उद्योतकर - प्रकाश करने वाले भी दो प्रकार के होते हैं- 1. स्वउद्योतकर और 2. परउद्योतकर। तीर्थंकर स्वयं की आत्मा को भी प्रकाशित करते हैं और उपदेश के द्वारा भव्य जीवों के लिए भी प्रकाश अर्थात केवलज्ञान का मार्ग प्रस्तुत करते हैं इस प्रकार तीर्थंकर दोनों तरह के उद्योतकर हैं 150
धम्मतित्थयरे- धर्म तीर्थ की स्थापना करने वाले । तीर्थंकर जब साधुसाध्वी, श्रावक और श्राविका रूप तीर्थ का प्रवर्तन करते हैं तभी से तीर्थंकर संज्ञा से उपमित होते हैं।
दुर्गति में गिरते हुए जीवों को शुभ स्थान में स्थित करता है वह धर्म कहलाता है। धर्म दो प्रकार का है - 1. द्रव्य धर्म और 2. भाव धर्म । भाव धर्म भी दो भेद वाला है - 1. श्रुत धर्म और 2. चारित्र धर्म। यहाँ श्रुत धर्म तीर्थ है। जिससे संसार सागर को तिरते हैं वह तीर्थ है। तीर्थ चार प्रकार के होते हैं1. नाम तीर्थ 2. स्थापना तीर्थ 3. द्रव्य तीर्थ और 4. भाव तीर्थ । यहाँ भाव तीर्थ ग्राह्य है। संघ आदि भाव तीर्थ है क्योंकि इसका आश्रय लेने वाले भव्य जीव नियमतः संसार समुद्र से तिरते हैं। 51
जिणे - जीतने वाले - जयतीति जिन: ।
आवश्यकनिर्युक्ति, आवश्यकटीका, ललितविस्तरा आदि में जिन शब्द की भिन्न-भिन्न परिभाषाएँ हैं। संयुक्त रूप में कहें तो जिन्होंने स्वरूपोपलब्धि में