SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 203
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्विंशतिस्तव आवश्यक का तात्त्विक विवेचन ...145 यथाप्रवृत्तिकरण की अपेक्षा गुण प्राप्ति द्वारा होने वाला कर्मों का क्षयोपशम अधिक और वैशिष्ट्य पूर्ण होता है। गुणानुराग के बिना गुण प्राप्ति सम्भव नहीं है इसलिए गुण प्राप्ति का मुख्य कारण गुणानुराग है और यही आत्म उन्नति का सोपान है। जहाँ गुणानुराग हो वहाँ गुण प्रशंसा स्वयमेव हो जाती है। गुण प्रशंसा को दर्शाने वाला लोगस्स सूत्र है इसी कारण इस सूत्र का अर्थाधिकार सद्भूत गुणोत्कीर्तन है। लोगस्स सूत्र के गुणसम्पन्न नाम से द्वितीय आवश्यक की अनिवार्यता भी सिद्ध हो जाती है, क्योंकि गुणानुराग पूर्वक गुणोपलब्धि से अधिकाधिक कर्म निर्जरा होती हैं अतएव मोक्षाभिलाषी साधकों को अनादिकालीन कर्मप्रवाह का उच्छेद करने के लिए चतुर्विंशतिस्तव रूप द्वितीय आवश्यक की आराधना अविच्छिन्न रूप से करनी चाहिए। चतुर्विंशति आवश्यक की उपादेयता चौबीस तीर्थंकर परमात्मा की स्तुति क्यों करते हैं तथा इसकी उपादेयता क्या है? यह बिन्दु विमर्शनीय है। आचार्य भद्रबाहु कहते हैं कि तीर्थंकर देवों की भक्ति करने से पूर्व संचित कर्म उसी प्रकार नष्ट हो जाते हैं जिस प्रकार अग्नि की नन्ही सी जलती हुई चिनगारी घास के ढेर को भस्म कर डालती है।25 उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि परमोपकारी तीर्थंकर देवों का स्तवन करने से आत्म विकास के प्रथम सोपान रूप दर्शन विशुद्धि होती हैं। यहाँ दर्शन शब्द से सम्यक्त्व ग्रहण करना चाहिए।26 इस विषय का स्पष्टीकरण करते हुए टीकाकार ने लिखा है- 'दर्शनं सम्यक्त्वं तस्य विशुद्धिः' अर्थात चतुर्विंशतिस्तव का तात्कालिक फल सम्यक्त्व की शुद्धि है और सम्यग्दर्शन के बिना सम्यग्ज्ञान, सम्यग्ज्ञान के बिना सम्यक् चारित्र प्रकट नहीं होता है तथा सम्यक् चारित्रं के अभाव में मुक्ति प्राप्त नहीं होती है इस तरह चतुर्विंशतिस्तव का परम्परा फल मोक्ष है। ___ भगवान महावीर की अन्तिम देशना रूप में संकलित उत्तराध्ययनसूत्र में स्तव-स्तुति रूप भाव मंगल का फल बताते हुए निर्दिष्ट किया है कि स्तव और स्तुति रूप भाव मंगल करने वाला जीव ज्ञान-बोधि, दर्शन-बोधि और चारित्रबोधि का लाभ प्राप्त करता है और उसके फलस्वरूप कल्प विमान में उत्पन्न होकर क्रमश: मोक्षपद को उपलब्ध करता है।27 यहाँ बोधि शब्द 'सम्यक्' अर्थ
SR No.006248
Book TitleShadavashyak Ki Upadeyta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy