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80...षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में
सामायिक के उक्त बत्तीस दोष कुछ नामान्तर के साथ रत्नसंचयप्रकरण में भी उल्लिखित हैं।123
सामायिकव्रती को निम्न चार दोषों का भी अवश्य वर्जन करना चाहिए1. अविधिदोष 2. अतिप्रवृत्ति-न्यूनप्रवृत्तिदोष 3. दग्धदोष 4. शून्यदोष।
1. अविधिदोष- शास्त्रोक्त विधिपूर्वक सामायिक नहीं करना।
2. अतिप्रवृत्ति-न्यून प्रवृत्ति दोष- सामायिक में रहते हुए जो कुछ करना चाहिए, उसमें अधिक या न्यून प्रवृत्ति करना।
3. दग्घदोष- सामायिकव्रत में रहते हुए इहलोक-परलोक, सांसारिक तथा भौतिक सुख की चर्चा करना।
4. शून्यदोष- सामायिक में सजग नहीं रहना, उपयोग अस्थिर रखना।124
सामायिकव्रती को इन दोषों की सम्यक जानकारी अवश्य होनी चाहिए, तभी वह इन दोषों से बच सकता है।
यदि ऐतिहासिक दृष्टि से इन दोषों का विवेचन किया जाए तो आगम ग्रन्थों, टीका साहित्यों एवं पूर्वकालीन ग्रन्थों में लगभग कहीं भी बत्तीस दोषों का वर्णन नहीं है मात्र शुद्ध सामायिक करने का निर्देश मिलता है। पूर्वोक्त दोषों का वर्णन अर्वाचीन संकलित ग्रन्थों में प्राप्त होता है। इन दोषों से सम्बन्धित प्राकृत गाथाएँ भी प्राप्त हुई हैं, किन्तु वे गाथाएँ किस ग्रन्थ से उद्धृत की गई हैं इसका कोई सूचन नहीं है। इससे ज्ञात होता है कि सामायिक सम्बन्धी बत्तीस दोषों का वर्णन आगमिक नहीं है। तुलनात्मक दृष्टि से देखा जाए तो श्वेताम्बर की सभी परम्पराएँ उक्त दोषों को स्वीकार करती हैं। दिगम्बर ग्रन्थों में इन दोषों की विस्तृत चर्चा का अभाव है। सामायिकव्रती की आवश्यक योग्यताएँ
सामायिक एक अन्तर्मुखी साधना है अतएव इसके लिए लिंग, वय, वर्ण, जाति या राष्ट्र की मर्यादाएँ बाधक नहीं हैं। प्रत्येक व्यक्ति इस साधना का अधिकारी माना गया है यद्यपि इसे फलदायी बनाने के लिए सामायिक व्रतधारी में कुछ योग्यताएँ होना आवश्यक है। जिस प्रकार रोगोपशमन के लिए केवल
औषधि का सेवन करना ही पर्याप्त नहीं होता, बल्कि उसके अनुकूल पथ्य का पालन भी करना होता है। उसी तरह सामायिक पापनाश की अमोघ औषधि है, परन्तु इसके सेवन के साथ-साथ तदनुकूल न्याय-नीति पूर्वक धनार्जन करना,