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सामायिक आवश्यक का मौलिक विश्लेषण... 69
प्रकार की प्रवृत्ति का निरोध हो जाता है, इस कारण उस समय गृहस्थ भी मुनि तुल्य हो जाता है। 102 सर्वार्थसिद्धि में कहा गया है कि सामायिक स्थित साधक के द्वारा अमुक देश और अमुक काल की सीमा निश्चित करने से उस समय तक सूक्ष्म और स्थूल दोनों प्रकार के हिंसा आदि पापों का त्याग हो जाता है, इससे वह नियतकाल के लिए महाव्रती के तुल्य माना जाता है। 103
पुरुषार्थसिद्धयुपाय में कहा गया है कि सामायिक दशा को प्राप्त करने वाले श्रावक के जीवन में चारित्र मोहनीय कर्म का उदय होने पर भी समस्त पाप व्यापार का परिहार करने से महाव्रत होता है । 104 चारित्रसार में लिखा गया है विषय और कषाय से निवृत्त होकर सामायिक करने वाला गृहस्थ महाव्रती होता है। 10
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यहाँ प्रश्न हो सकता है कि यदि सामायिक स्थित गृहस्थ को महाव्रती कहा जाए तो उसके लिए सम्पूर्ण संयम का प्रसंग प्राप्त होगा ? किन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि उसके संयमधर्म का घात करने वाले चारित्रमोहनीय कर्म का उदय प्रवर्त्तमान रहता है। दूसरे, जैसे राजकुल में चैत्र को सर्वगत उपचार से कहा जाता है उसी प्रकार सामायिकव्रती को महाव्रती उपचार से कहा जाता है। 106
अनगारधर्मामृत में भी इस प्रसंग को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि सामायिक व्रत के पालक देशविरति श्रावक का चित्त भी हिंसा आदि सब पापों में अनासक्त रहता है यद्यपि संयम घातक प्रत्याख्यानावरण कषाय का मन्द उदय होता है इसलिए उसे उपचार से महाव्रत मान लिया जाता है। 107 आचार्य समन्तभद्र ने कहा है कि प्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय मन्द होने से चारित्र मोहरूप परिणाम अतिमन्द हो जाते हैं जिसके फलस्वरूप उसका अस्तित्व जानना भी कठिन होता है । उसी अपेक्षा से महाव्रत की कल्पना की जाती है। अतः सामायिक गृहस्थ श्रावक के लिए भी आवश्यक है। 108 वस्तुतः सामायिक पाँच महाव्रतों को परिपूर्ण करने का कारण है अतएव उसे प्रमादरहित और एकाग्रचित्त पूर्वक प्रतिदिन नियम से करना चाहिए।
सामायिक की उपादेयता को पुष्ट करने वाला एक तथ्य यह भी है कि सामायिक चारित्र सभी तीर्थंकरों के समय अवस्थित रहता है, जबकि शेष चार चारित्र की अवस्थिति आवश्यक नहीं है। मूलाचार में कहा गया है कि मध्यवर्ती बाईस तीर्थंकर सामायिक चारित्र का उपदेश देते हैं किन्तु प्रथम तीर्थंकर