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सामायिक आवश्यक का मौलिक विश्लेषण...67
हुए कहते हैं कि षडावश्यक में सामायिक प्रथम आवश्यक है । चतुर्विंशति आदि शेष पाँच आवश्यक एक अपेक्षा से सामायिक के ही भेद हैं, क्योंकि सामायिक ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप है और चतुर्विंशति आदि में इन्हीं गुणों का समावेश है। ज्ञान, दर्शन और चारित्र को प्रधान गुण माना गया है। 89 उन्होंने सामायिक को चौदह पूर्वों का अर्थपिण्ड कहा है। 90
सामायिक एक पापरहित साधना है। सामायिक काल में चित्तवृत्ति शान्त रहने से नवीन कर्मों का बन्ध नहीं होता। इस समय यथासंभव विश्वकल्याण की कामना की जाती है फलतः आत्म स्वभाव में सुस्थिर बन श्रेष्ठ ध्यान द्वारा परमात्म पद को उपलब्ध कर लेता है। आचार्य हरिभद्रसूरिजी ने पूर्व कथन को ही स्पष्ट करते हुए कहा है कि सामायिक कुशल - शुद्ध आशय रूप है, इसमें मन, वचन और शरीर रूप सब योगों की विशुद्धि हो जाती है। अतः परमार्थ दृष्टि से सामायिक एकान्त, पापरहित है। 91 उनके अनुसार सामायिक से विशुद्ध हुआ आत्मा ज्ञानावरणी आदि घाति कर्मों का पूर्णरूप से क्षयकर लोकालोक प्रकाशक केवलज्ञान प्राप्त कर लेता है | 92
आचार्य हरिभद्रसूरि यह भी कहते हैं कि चाहे श्वेताम्बर हो या दिगम्बर, बौद्ध हो या किसी अन्य मत का अनुयायी हो, जो भी समभाव में स्थित होगा, समत्ववृत्ति का आचरण करेगा, वह निःसन्देह मोक्ष को प्राप्त करेगा। 3
आचार्य हेमचन्द्र कहते हैं कि 'न हि साम्येन विना ध्यानम्' साम्ययोग के बिना ध्यान-साधना के क्षेत्र में प्रवेश नहीं किया जा सकता | 94 चूर्णिकार जिनदासगणी कहते हैं कि आवश्यकसूत्र का प्रथम अध्ययन है - सामायिक । सामायिक का लक्षण है- समभाव। जैसे आकाश सब द्रव्यों का आधार है वैसे ही सामायिक सब गुणों की आधार भूमि है । समभाव विशिष्ट लब्धियों की प्राप्ति में हेतुभूत हैं तथा इससे सब पापों पर अंकुश लग जाता है। 95
हेमचन्द्राचार्य इसके महत्त्व को रूपायित करते हुए यह भी कहते हैं कि तीव्र आनन्द को उत्पन्न करने वाला समभाव रूपी जल में अवगाहन करने वाले साधक की राग-द्वेष रूपी अग्नि सहज ही नष्ट हो जाती है । समत्व के अवलम्बन से जो कर्म अन्तर्मुहूर्त में क्षीण हो सकते हैं वे तीव्र तपस्या से करोड़ों जन्मों में भी नष्ट नहीं हो सकते। जैसे दो वस्तु परस्पर में चिपकी हुई हो, तो बांस आदि की सलाई से पृथक् की जाती है उसी प्रकार परस्पर बद्ध आत्मा और कर्म को