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66...षडावश्यक की उपादेयता भौतिक एवं आध्यात्मिक सन्दर्भ में सामायिक व्रत में समर्थ एवं उसके पालक व्यक्ति को ही समिति धर्म में प्रवृत्ति करने का उपदेश दिया जाता है। अत: सामायिक चारित्र कारण है और समिति इसका कार्य है।86 समाहारत: सामायिक आंशिक समिति रूप और आंशिक गुप्ति रूप साधना है। सामायिक व्रत और सामायिक प्रतिमा में मुख्य अन्तर के कारण
यह सुविदित है कि श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं में दूसरी व्रत नामक प्रतिमा है और तीसरी सामायिक नाम की प्रतिमा है। यहाँ प्रश्न होता है कि व्रत प्रतिमा में बारह व्रतों के अन्तर्गत सामायिक नाम का व्रत कहा गया है वही सामायिक व्रत तीसरी प्रतिमाधारी के लिए बतलाया गया है तब इन दोनों में विशिष्टता क्या है? इसका समाधान करते हुए कहा गया है कि व्रत प्रतिमा की सामायिक सातिचार (दोषजन्य) होती है और सामायिक प्रतिमा की निरतिचार। दूसरा अन्तर यह है कि व्रत प्रतिमा में तीनों काल सामायिक करने का नियम नहीं है, जबकि सामायिक प्रतिमा में मुनियों के मूलगुण आदि की भाँति तीनों काल सामायिक करने का विधान है। जैसा कि सागार धर्मामृत में कहा गया हैजिस श्रावक की बुद्धि निरतिचार सम्यग्दर्शन, निरतिचार मूलगुण और निरतिचार उत्तरगुणों के समूह के अभ्यास से विशुद्ध है, ऐसा श्रावक प्रात:काल, मध्यकाल एवं सायंकाल- इन तीनों कालों में परीषह, उपसर्ग आदि के होने पर भी साम्य परिणाम को धारण करता है, वह सामायिक प्रतिमाधारी है।87
तीसरी विशिष्टता यह है कि व्रत प्रतिमाधारी कभी सामायिक करता है और कारणवश कभी नहीं भी करता है, फिर भी उसका व्रत खंडित नहीं होता। क्योंकि वह इस व्रत को सातिचार पालन करता है, परन्तु तीसरी सामायिक प्रतिमा का पालन करने वाले श्रावक के लिए त्रिकाल सामायिक करना आवश्यक है, अन्यथा उसका व्रत खण्डित हो जाता है।88 सामायिक आवश्यक की मौलिकता ___सामायिक मोक्षप्राप्ति का प्रमुख अंग है। सिद्ध अवस्था में भी सामायिक सदैव प्रवर्तित रहती है। जैन ग्रन्थों में सामायिक की उपयोगिता को दर्शाने वाले अनेक उद्धरण हैं। आचार्य जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण इसके माहात्म्य को बतलाते