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सामायिक आवश्यक का मौलिक विश्लेषण ...55 अमूर्तिक है। लोक में शीतऋतु, ग्रीष्मऋतु, वर्षाऋतु आदि को उपचरित व्यवहार से काल कहा जाता है तथा वह ज्योतिषी देवों के गमन आदि से और पौदगलिक परिवर्तन से जाना जाता है, अत: पौद्गलिक है। पुद्गल द्रव्य रूप, रस, गन्ध, स्पर्श वाला होने से मूर्तिक है, जबकि आत्मा अमूर्त है इसलिए अमूर्त आत्मा मूर्त काल से सम्बद्ध नहीं हो सकता, तब ऋतु आदि का परिवर्तन होने पर आत्मा द्वारा राग-द्वेष कैसे किया जा सकता है? वह तो पुद्गलों का परिवर्तन है, यही काल सामायिक का यथार्थ लक्षण है।
6. भाव सामायिक- शत्रु हो या मित्र, स्वजन हो या अन्यजन, सभी के प्रति एक-सा भाव रखना, समान आचरण करना, हृदय में प्रमोदभाव उत्पन्न होना और आत्मभाव में विचरण करना भाव सामायिक है। ___आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है कि जिसने समस्त कषायों का निरोध कर दिया है और मिथ्यात्व का वमन कर दिया है तथा जो नयवाद द्वारा श्रुत सिद्धांत को पूर्णरूप से कहने में समर्थ है ऐसे पुरुष को बाधारहित और अस्खलित जो छह द्रव्य विषयक ज्ञान होता है, वह भाव सामायिक है।37 __ चूर्णिकार जिनदासगणी महत्तर ने भाव सामायिकधारी को एक विराट नगर की उपमा दी है। जैसे विराट नगर जनता, धन, धान्य आदि से समृद्ध तथा विविध वनों और उपवनों से अलंकृत होता है वैसे ही भाव सामायिक करने वाले साधक का जीवन सद्गुणों से सुसज्जित होता है। वह आत्मभाव में विचरण करते हुए सदैव चिन्तन करता है- मैं अजर-अमर हूँ, चैतन्यस्वरूप हूँ, जन्ममरण, मान-अपमान, संयोग-वियोग, लाभ-अलाभ- ये सभी कर्मोदयजन्य विकार हैं। वस्तुत: इनके साथ मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है। ___जीव के पाँच भावों में केवल एक पारिणामिक भाव स्वाभाविक है, शेष चारों भाव औपाधिक हैं। उनमें औदयिक, औपशमिक और क्षायोपशमिक- ये तीन भाव तो कर्मजनित होने के कारण मुझसे भिन्न हैं अत: मैं उनमें राग-द्वेष कैसे कर सकता हूँ? क्षायिक भाव केवल ज्ञानादि रूप जीव का यद्यपि स्वभाव है फिर भी कर्मों के क्षय से उत्पन्न होने के कारण उपचार से कर्मजनित कहा जाता है।38
इस प्रकार विचार करके शुद्ध, बुद्ध, मुक्त आत्मस्वरूप को प्राप्त करना ही भाव सामायिक है।