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अध्याय-2
सामायिक आवश्यक का मौलिक विश्लेषण
षडावश्यक में सामायिक का प्राथमिक स्थान है। आवश्यक का प्रारम्भ सामायिक से होता है और पूर्णता प्रत्याख्यान पर होती है। प्रथम और अन्तिम दोनों आवश्यक सावध विरति एवं पाप निवृत्ति के द्योतक हैं, अत: सामायिक एक व्रत है। इसके द्वारा मन-वचन और काया को संयमित एवं मर्यादित बनाया जाता है जिसके फलस्वरूप यह आत्मा शनैः शनैः उपशमित एवं आत्म स्थित बन जाती है। परमार्थत: यही सामायिक आवश्यक है। यह आध्यात्मिक जीवन में प्रवेश करने का सर्वोत्कृष्ट सोपान है। इसके माध्यम से अनावश्यक एवं अपरिमित आस्रवों का निरोध कर अनियन्त्रित जीवन को व्रत-नियम से सुसज्जित किया जाता है। व्रत आत्म सुरक्षा का अभेद्य कवच है और व्रतनिष्ठ साधक के लिए परकोटे के सदृश है। व्रत रहित खुला जीवन असुरक्षित एवं भयोत्पादक होता है। आध्यात्मिक क्षेत्र में ही नहीं बाह्य जीवन में भी खली वस्तुएँ असुरक्षित होती हैं जैसे- दूध का पात्र खुला पड़ा हो तो उसमें मक्खी, छिपकली आदि गिरने की संभावना रहती है, इसीलिए उस पर ढक्कन देते हैं। प्रत्येक घर में दरवाजे लगे रहते हैं ताकि हर कोई उसमें घुस न जाएं। प्रायः गाँव या नगर में सुरक्षाकर्मी पुलिस आदि रहती हैं ताकि नगरवासी निर्भय होकर रह सकें, इसी तरह सामायिक व्रत द्वारा आत्मा के स्वाभाविक गुणों का संपोषण एवं वैभाविक दोषों का निर्गमन होता है। व्रत विहीन व्यक्ति के मन में पाप शीघ्र प्रवेश कर जाते हैं इसलिए सामायिक आवश्यक आराधना में स्थान दिया गया है। सामायिक के विभिन्न अर्थ
सामायिक का अभिप्रेत समता है। समता का अर्थ है- चित्त की स्थिरता, राग-द्वेष रूप अध्यवसायों का शमन और अनुकूल-प्रतिकूल में तटस्थता। स्वयं को विषम भावों से हटाकर स्व-स्वरूप में रमण करना समता है।