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अध्याय- 1
प्रायश्चित्त का अर्थ एवं स्वरूप विमर्श
जैन धर्म में आचार-शुद्धि पर सर्वाधिक बल दिया गया है। जैनाचार्यों ने आचार पालन के सम्बन्ध में अत्यन्त सूक्ष्म निरूपण करते हुए कहा है कि स्वप्न में भी यदि हिंसा या असत्य भाषण हो जाए तो उसे गुरु के समक्ष निवेदन कर उनके द्वारा दिए गए दण्ड ( प्रायश्चित्त) को मनोयोग पूर्वक स्वीकार कर लेना चाहिए।
सामान्यतः गृहस्थ साधक द्वारा यथायोग्य व्रतों एवं नियमों का पालन करते हुए तथा मुनि द्वारा संयम साधना करते हुए परिस्थिति या प्रमादवश अर्हत प्ररूपित धर्म की मर्यादाओं का उल्लंघन अथवा अकरणीय कार्यों का सेवन हो जाता है तब संसार भीरु आत्माओं को अनाचरणीय कृत्यों की अप्रमत्त भाव से शीघ्र ही आलोचना कर लेनी चाहिए। यह आध्यात्मिक एवं नैतिक जीवन का आवश्यक अंग है।
स्वच्छ
जिस प्रकार नदी-नालों में प्रवाहित नीर कई स्थानों के कूड़े-कचरे, मिट्टी आदि के मिश्रण से मलिन हो जाता है तब फिल्टर आदि यंत्रों के प्रयोग से उसे -निर्मल कर दिया जाता है उसी प्रकार अनादिकाल से परिभ्रमण कर रही यह आत्मा मोह-मिथ्यात्व - विषय - कषाय आदि से युक्त राग-द्वेषात्मक परिणतियों से दूषित है, आत्मार्थी साधक आलोचना एवं प्रायश्चित्त रूपी रसायन के द्वारा उसे निर्मल एवं मोक्षपथ पर आरूढ़ कर सकता है।
भगवान महावीर के शासनवर्ती गृहस्थ एवं मुनि साधकों को सामान्य पापों की आलोचना प्रतिदिन करनी चाहिए, क्योंकि काल दोष के प्रभाव से जानेअनजाने दुष्कर्मों का आसेवन हो जाता है। जिस प्रकार रोगी औषधि के साथ पथ्य का परिपालन करता है तभी आरोग्य पाता है उसी प्रकार सद्गति इच्छुकों को आवश्यक धर्म आराधनाएँ जैसे संयम, शील, व्रत, तप, जप आदि अनुष्ठान रूपी औषधि का आस्वादन करते हुए प्रायश्चित्त रूपी पथ्य का भी