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264... प्रायश्चित्त विधि का शास्त्रीय पर्यवेक्षण
प्रायश्चित्त प्रकरण, प्रायश्चित्त विवेक, प्रायश्चित्त तत्त्व, स्मृति मुक्ताफल, प्रायश्चित्त मयूख, प्रायश्चित्त प्रकाश आदि अनेक रचनाएँ प्रायश्चित्त से ही सम्बन्धित हैं।
जैन परम्परा के समान यहाँ भी सभी व्यक्तियों के लिए तुल्य प्रायश्चित्त का विधान नहीं है तथा समान अपराध में भी परिस्थिति के अनुसार न्यूनाधिक प्रायश्चित्त का नियम है । यहाँ प्रायश्चित्त दण्ड एवं अपराध स्वीकार के चार स्तर माने गये हैं
1. परिषद् के समीप जाना, 2. परिषद् द्वारा यथोचित् प्रायश्चित्त का उद्घोष करना, 3. प्रायश्चित्त का सम्पादन करना और 4. अपराधी के पापकर्म मुक्त होने का प्रकाशन करना ।
स्पष्टार्थ यह है कि इस धर्म में प्रायश्चित्त प्रदान करने वाली एक परिषद् होती है वही अपराध की गुरुता एवं अपराधी की मनोवृत्ति देखकर तदनुसार प्रायश्चित्त (दण्ड) प्रदान करती है।
उपरोक्त विवेचन से यह निर्विवादतः सिद्ध होता है कि जैन, बौद्ध एवं वैदिक त्रिविध धाराओं में अपराध स्वीकार एवं प्रायश्चित्तदान का मूल्य युग के आदिमकाल से रहा है। तीनों ही परम्पराएँ प्रायश्चित्त का उद्देश्य एवं उसकी आवश्यकता के सम्बन्ध में भी प्राय: समान विचार रखती हैं। अतः कह सकते हैं कि प्रायश्चित्त आत्मशुद्धि का अपरिहार्य अंग है, मलीनता के निर्गमित करने का पुष्ट साधन है तथा प्रगाढ़ रूप से आबद्ध पापकर्मों के मोचन का अनन्तर कारण है।
सन्दर्भ सूची
1. जीतकल्पभाष्य, 5
2. व्यवहारभाष्य, 35
3. वही, 4026 की टीका
4. वही, 319
5. निशीथभाष्य, 6497-6499 की चूर्णि
6. व्यवहारभाष्य, 44 की टीका
7. वही, 331-332 की टीका