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उपसंहार... 255
धृतिबल - धृतिहीनता आदि के आधार पर कम-ज्यादा प्रायश्चित्त भी दिया जा सकता है। एक ही गलती में प्रायश्चित्त दान की विविधता का हेतु पक्षपात नहीं, अपितु विवेक है। इस प्रकार प्रायश्चित्त दान के कुछ प्रयोजन निम्नांकित हैं1. दोष स्वीकृति के आधार पर प्रायश्चित्त
प्रायश्चित्त दान का प्रथम हेतु यह है कि अपराधी दोष स्वीकार करे तब ही प्रायश्चित्त दिया जाता है, दोष स्वीकारोक्ति के बिना प्रायश्चित्त नहीं होता । भाष्यकार संघदासगणि ने इस प्रसंग में उदाहरण देते हुए समझाया है कि कोई साधु मूलगुण-उत्तरगुण सम्बन्धी अतिचारों की आलोचना करते हुए कुछ आलोचनीय दोषों को विस्मृत कर गया, उस समय आगम व्यवहारी श्रमण उसे वह आलोचनीय बात याद दिला देते हैं। यदि वह स्वीकार कर लेता है तो ठीक है, अन्यथा उसे पुनर्स्करण नहीं करवाते हैं।
आगम व्यवहारी यह जान लेते हैं कि वह विस्मृत अपराध स्वीकार नहीं करेगा, इसलिए उसे निष्फल स्मरण नहीं करवाते । प्रायश्चित्त दाता अमूढ़ लक्ष्य होते हैं। आलोचक के अस्वीकार करने पर उसे प्रायश्चित्त नहीं देते | 4
इससे स्पष्ट होता है कि दोष के स्वीकार करने पर ही प्रायश्चित्त के लेनदेन का व्यवहार प्रवृत्त होता है ।
2. स्वीकृत व्रतों के आधार पर प्रायश्चित्त
मुनि उत्सर्गतः व्रत सम्पन्न होते हैं, अहिंसा आदि पाँच महाव्रतों के धारक होते हैं। गृहस्थ के लिए भी बारहव्रत आदि स्वीकार करने का नियमतः विधान है । व्रतधारी गृहस्थ को ही श्रावक-श्राविका पद की संज्ञा दी गई है। विशेष ज्ञातव्य है कि अवधारित व्रतों में लगने वाले दोषों की परिमुक्ति के लिए ही प्रायश्चित्त दान होता है। उपलब्ध तत्सम्बन्धी ग्रन्थों में व्रतदूषण के निराकरण के रूप में ही प्रायश्चित्त विधि कही गयी है । अव्रती की तो समस्त क्रियाएँ संसार हेतुक ही हैं किन्तु व्रतधारी संसारजनक बन्ध को प्रायश्चित्त द्वारा निर्जीर्ण कर सकता है, अतः व्रत स्वीकार अत्यन्त मूल्यवान है।
गृहीत व्रतों में सामान्यतया चार स्तर के दोष लगते हैं
अतिक्रम - दोष सेवन के लिए संकल्प करना, व्यतिक्रम- दोष सेवन के लिए प्रस्थान करना, अतिचार - दोष सेवन के लिए सामग्री जुटाना, अनाचार - दोष का आसेवन करना ।