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अध्याय-7
उपसंहार
दोष-परिहार के लिए जो प्रयत्न किया जाता है वह प्रायश्चित्त है, जिसके द्वारा चित्त की विशुद्धि होती है वह प्रायश्चित्त है, जिसके समाचरण से पर्वसंचित पापकर्म विनष्ट होते हैं वह प्रायश्चित्त है।2 सार रूप में कहा जाए तो पापों का शोधन कर आत्मा की विशुद्ध अवस्था को प्राप्त करवाने वाली क्रिया प्रायश्चित्त है।
असेवनीय कार्यों की लघुता एवं गुरुता के आधार पर प्रायश्चित्त के दस भेद किये गये हैं-1. आलोचना, 2. प्रतिक्रमण, 3. तदुभय, 4. विवेक, 5. व्युत्सर्ग, 6. तप, 7. छेद, 8. मूल, 9. अनवस्थाप्य और 10. पारांचिक।
तत्त्वार्थसूत्र में प्रायश्चित्त के नौ भेदों का वर्णन मिलता है। इसमें मूल, अनवस्थाप्य और पारांचिक-इन तीन प्रायश्चित्तों के स्थान पर परिहार एवं उपस्थापना-इन दो प्रायश्चित्तों का उल्लेख है। दिगम्बर साहित्य मूलाचार आदि में नौ एवं अनगारधर्मामृत आदि कुछ ग्रन्थों में दस प्रायश्चित्तों का उल्लेख मिलता है।
आचार्य अकलंक ने कहा है कि जीव के जितने परिणाम हैं अपराध भी उतने ही होते हैं। इस नियम के अनुसार प्रत्येक जीव के परिणाम असंख्येय हैं अत: अपराध भी उतने ही हैं लेकिन प्रायश्चित्त के भेद उतने नहीं हैं। पूर्वाचार्यों ने प्रायश्चित्त के नौ या दस भेद व्यवहारनय की अपेक्षा समुच्चय रूप में कहे हैं।
__ पूर्व विवेचन के अनुसार प्रायश्चित्त के सम्बन्ध में जानने योग्य अनेक तथ्य हैं, केवल अपराध करने या अपराध ज्ञापित करने मात्र से प्रायश्चित्त दिया लिया जाता हो, ऐसा नहीं है। प्रायश्चित्त देने एवं लेने के अनेक हेतु हैं। प्रत्येक दोष या कुकर्म की विविध अपेक्षाओं एवं विभिन्न स्थितियों को ध्यान में रखते हुए प्रायश्चित्त प्रदान किया जाता है। प्रायश्चित्त दान में प्रमुखतः अपराधी की मनःस्थिति, कायस्थिति एवं वैचारिक स्थिति का परीक्षण किया जाता है। दो व्यक्तियों के समान अपराध होने पर भी गीतार्थ-अगीतार्थ, यतना-अयतना,