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________________ जैन एवं इतर साहित्य में प्रतिपादित प्रायश्चित्त विधियाँ...251 विस्तृत है, क्योंकि यहाँ गृहस्थ एवं मुनि के व्रतों के अनुसार दोषों की परिगणना की गई है, वैदिक मत में ऐसा नियम नहीं है। वहाँ अधिकांश दोष गृहस्थ जीवन से सम्बन्धित और वह भी नैतिक, सामाजिक एवं वैयक्तिक दृष्टिकोण के प्राधान्य से कहे गए हैं। इसके अतिरिक्त योग्यता एवं आयु की अल्पाधिकता के आधार पर कौन-किस प्रायश्चित्त का अधिकारी हो सकता है? प्रायश्चित्त दानी किनकिन गुणों से युक्त होना चाहिए? प्रायश्चित्त कर्ता किन लक्षणों से सम्पन्न होना चाहिए? स्वकृत पापों का निवेदन कब, किस विधि पूर्वक करना चाहिए? इस विषयक स्पष्ट चर्चा जैन ग्रन्थों में ही परिलक्षित होती है। जैन-बौद्ध- यदि जैन परम्परा और बौद्ध परम्परा में प्रचलित प्रायश्चित्तविधि का तुलनात्मक पक्ष उजागर किया जाए तो पूर्व वर्णन के अनुसार कहा जा सकता है कि • जैन संघ में प्रायश्चित्त के 10 प्रकार हैं जिनमें आलोचना, प्रतिक्रमण व कायोत्सर्ग करना जैन साधु-साध्वियों का प्रतिदिन का नियम है जबकि बौद्ध संघ में प्रायश्चित्तों की संख्या 8 है तथा यहाँ प्रतिदिन गुरु के समीप आलोचना आदि करने का विधान नहीं है। • दोनों परम्पराओं में दण्ड-दान की प्रक्रिया में अन्तर है। जैन संघ में अपने अपराधों का निवेदन अधिकृत आचार्य अथवा गीतार्थ मुनि के समक्ष ही करना होता है जबकि बौद्ध संघ में दोष कथन की प्रक्रिया पूरे संघ के अभिमुख प्रस्तुत की जाती है। साथ ही तीन बार वाचना, ज्ञप्ति एवं धारणा के द्वारा संघ की मौन सहमति को अपराध-मुक्त करने की स्वीकृति मानी जाती है। • जैन संघ में गृहस्थ या मुनि द्वारा किसी तरह का अपराध या दोष होने पर उसी दिन अपने गच्छ-प्रमुख या प्रवर्तिनी या सहवर्ती ज्येष्ठ आर्या के समीप उन त्रुटियों का निवेदन करना आवश्यक है। गृहस्थ को उस प्रकार की सुलभता न हो तो, जिस दिन वैसा संयोग प्राप्त हो तब सामान्य आलोचना करने का विधान है। . बौद्ध संघ में इस प्रकार का नियम नहीं है। यहाँ प्रत्येक पन्द्रहवें दिन उपोसथ के समय पातिमोक्ख नियमों की वाचना होती है, जिसमें सारे नियमों को दोहराया जाता है उस समय ही संघ को भिक्षु-भिक्षुणी के अपराधों की सूचना मिलती है। इसी प्रकार प्रवारण (वर्ष में एक बार) के समय दृष्ट, श्रुत व
SR No.006247
Book TitlePrayaschitt Vidhi Ka Shastriya Sarvekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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