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250...प्रायश्चित्त विधि का शास्त्रीय पर्यवेक्षण
श्वेताम्बर परम्परा के आचार्यों ने साधु-साध्वी एवं श्रावक-श्राविका के व्रतों में संभावित सर्व प्रकार के दोषों के प्रायश्चित्त बतलाये हैं यानी इस सम्बन्ध में व्यापक चिन्तन प्रस्तुत किया है जबकि दिगम्बर परम्परा की सम्प्राप्त कृतियों में मुनिजीवन सम्बन्धी दोषों के प्रायश्चित्त की चर्चा विशेष रूप से की गई है।
___ इस तरह श्वेताम्बर-दिगम्बर दोनों परम्पराओं में तप दान सम्बन्धी प्रायश्चित्त विधि को लेकर कुछ समानता है और कुछ असमानता हैं।
जैन-हिन्दू- यदि जैन परम्परा और हिन्दू परम्परा का तुलनात्मक अध्ययन करते हैं तो पूर्व चर्चा के आधार पर कहा जा सकता है कि जिस प्रकार जैनाचार्यों ने अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, अनर्थदण्ड, भोगोपभोग आदि व्रतों का आंशिक या सर्वांश रूप से भंग करने वाले साधक को प्रायश्चित्त योग्य माना है उसी प्रकार वैदिक ग्रन्थकारों ने भी हिंसा-झूठ, चोरी, निषिद्ध संभोगी, अभक्ष्य सेवी आदि को प्रायश्चित्त करने का अधिकारी सिद्ध किया है।
जैन परम्परा के मूलाचार आदि ग्रन्थों में प्रायश्चित्त शब्द का जो अर्थ किया गया है उसी से मिलता-जुलता अर्थ वहाँ भी उपलब्ध है। प्रायश्चित्त का मूल प्रयोजन दोनों परम्पराओं में समानप्राय: है। जैन मतानुसार प्रायश्चित्त न करने वाला दुर्गति को प्राप्त करता है वैसे ही धर्मसूत्रकारों-स्मृतिकारों ने भी निर्दिष्ट किया है कि प्रायश्चित्त न करने वाला अपराधी पुरुष नरक-तिर्यश्च एवं मनुष्य गति में अनेक प्रकार के कष्टों को भोगता है। __ जैन अभिमत में प्रायश्चित्त (दण्ड प्रक्रिया) के मुख्यत: तीन साधन प्रवर्तित हैं- तपस्या, जाप और स्वाध्याय। किन्तु परिस्थिति की भिन्नता, अपराधी की मनोवृत्ति एवं अपराध की तीव्रता या मन्दता के आधार पर प्रायश्चित्त-दान की दस कोटियाँ हैं यद्यपि सामान्य प्रकार के दोषों में त्रिविध साधनों का ही प्रयोग (उपयोग) किया जाता है जबकि वैदिक परम्परा में प्रायश्चित्त के दस उपाय कहे गये हैं उनमें जैन परम्परा के तप-जपादि तीनों उपायों का समावेश है।
इस प्रकार हम पाते हैं कि जैन एवं वैदिक परम्परा के रचनाकारों द्वारा कथित प्रायश्चित्त-विधि मुख्यभूत सन्दर्भो में प्राय: तुल्य है केवल व्रतादि में लगने वाले दोषों के सम्बन्ध में भिन्नता है। जैन मत में दोष सम्बन्धी अधिकार