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जैन एवं इतर साहित्य में प्रतिपादित प्रायश्चित्त विधियाँ...247 तथा पात्रों का परित्याग करना पड़ता है। संघ, गण या प्रमुख व्यक्ति के समक्ष स्वदोषों को स्वीकार कर लेने पर कृत दोषों का निराकरण हो जाता है।
नैसर्गिक प्रायश्चित्त के योग्य 30 अपराध माने गये हैं। उनमें से कुछ दोष इस प्रकार हैं
1. अधिक पात्रों का संचय करना। 2. वस्त्र की अदला-बदली करना। 3. याचित वस्तु के अतिरिक्त अन्य वस्तु मंगवाना। 4. शीतकाल के लिए मूल्यवान वस्त्र मंगवाना। 5. नानाविध वस्त्रों-औषधियों आदि का क्रय-विक्रय करना। 6. जुलाहा द्वारा चीवर में परिवर्तन करवाना। 7. अतिरिक्त चीवर को चीवर काल से अधिक समय तक ग्रहण करना __ आदि।
4. पाचित्तिय-यह प्रायश्चित्त आहार, विहार, निवास, भाषण आदि के सम्बन्ध में दोष लगने पर दिया जाता है। इस दण्ड के योग्य अपराधों को आचरण धर्म से पतित करने वाला एवं आर्यमार्ग का अतिक्रमण करने वाला माना गया है। इस प्रायश्चित्त में अपराधी संघ या पुग्गल (व्यक्ति) के सम्मुख स्व अपराधों को स्वीकार करने मात्र से दोष मुक्त हो जाता है। पाचित्तिय दण्ड के योग्य थेरवादी निकाय में 166 एवं महासंघिक निकाय में 141 दोष कहे गये हैं। इनका सेवन करने पर भिक्षु पाचित्तिय धर्म का दोषी माना जाता है। किंच दोषों के नाम इस प्रकार हैं
1. लहसुन खाना। 2. योनि स्थान को अधिक गहराई तक धोना। 3. भोजन करते समय भिक्षु की जल या पंखे से सेवा करना। 4. नृत्य देखना, गीत या वाद्य सुनना। 5. पुरुष से एकान्त में बातचीत करना। 6. गृहणियों जैसा कार्य करना। 7. अशान्ति पूर्ण बाह्यदेश में एकाकी विचरण करना। 8. वर्षाकान्त में विचरण करना। 9. प्रति-पन्द्रहवें दिन भिक्षु संघ के समीप उपोसथ पूछने या उवाद सुनने न
जाना इत्यादि।