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जैन एवं इतर साहित्य में प्रतिपादित प्रायश्चित्त विधियाँ... 239
• यदि मुनि पाँच समिति, पाँच इन्द्रियों का निरोध, भूमि शयन, केशलोंच और अदन्त धावन इन तेरह मूलगुणों में एक बार संक्लेश परिणाम करे तो एक कायोत्सर्ग, यदि कोई मुनि इन तेरह मूलगुणों में बार-बार संक्लेश परिणाम करे तो एक उपवास, यदि कोई मुनि शेष पन्द्रह मूलगुणों में एक बार संक्लेश परिणाम करे तो पंचकल्लाण, यदि कोई मुनि इन पन्द्रह मूल गुणों में बार-बार संक्लेश परिणाम करे तो पुनर्दीक्षा प्रायश्चित्त निर्दिष्ट है ।
• यदि मुनि मर्यादा पूर्वक स्थिर योग धारण करे और उसको मर्यादा से पूर्व समाप्त कर दें तो जितना काल शेष रहा उतने उपवास, एक महीने के तीन भाग करते हुए उसके प्रथम भाग में प्रतिक्रमण न करें तो एक पंच कल्लाणक, दूसरे भाग में प्रतिक्रमण न करें तो उतने उपवास, तीसरे भाग में प्रतिक्रमण न करें तो एक लघुकल्याणक प्रायश्चित्त है।
• यदि मुनि ने अप्रासुक भूमि में एक बार योग धारण किया तो प्रतिक्रमण पूर्वक एक उपवास और अनेक बार योग धारण करे तो पंचकल्लाणक, यदि किसी योगकृत की भूमि को मनोहर देखकर उससे मोह करे तो पंचकल्लाणक, यदि किसी योग भूमि को मनोहर देखकर उस पर अहंकार करे तो पुनर्दीक्षा का प्रायश्चित्त आता है।
• यदि मुनि गाँव, नगर, घर, वसति आदि बनवाने के दोषों को न जानता हुआ उसका उपदेश करें तो एक कल्लाणक, यदि गृह निर्माण आदि के दोषों को जानता हुआ आरम्भ का उपदेश करें तो पंचकल्लाणक, यदि वह गर्व या अहंकार से उनके बनवाने का उपदेश करे तो पुनर्दीक्षा प्रायश्चित्त का विधान है।
• जो मुनि पूजा के आरम्भ से उत्पन्न होने वाले दोषों को नहीं जानता हुआ एक बार गृहस्थों को पूजा करने का उपदेश करे तो उसके आरम्भ के अनुसार आलोचना या कायोत्सर्ग से लेकर उपवास, यदि वे मुनि बार-बार उपदेश करे तो कल्लाणक, जो मुनि पूजा के आरम्भ दोषों को जानते हुए एक बार उपदेश करे तो मासिक पंचकल्लाणक तथा जिस पूजा उपदेश से छहकायिक जीवों का वध होता हो तो छेदोपस्थापना अथवा पुनर्दीक्षा प्रायश्चित्त का भागी होता है ।
• यदि कोई सल्लेखना करने वाला साधु क्षुधा, तृषा से पीड़ित होकर लोगों के न देखते हुए भोजन कर ले या सल्लेखना न करने वाला साधु अनेक