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212...प्रायश्चित्त विधि का शास्त्रीय पर्यवेक्षण
• प्रायश्चित्त के निमित्त किए जाने वाले तप का भंग होने पर अथवा तप का प्रत्याख्यान न करने पर उस तप के प्रत्याख्यान में ही लीन रहे।
• जानबूझकर नियम का भंग करने पर उसकी शुद्धि प्रायश्चित्त से नहीं होती है। प्रत्याख्यान का विस्मरण होने पर तथा उनका भंग होने पर उसका प्रायश्चित्त गुरु के कथनानुसार करे।
• शक्ति होने पर भी किंचित ज्ञानाभ्यास या तप न करें, इसी प्रकार संयम के साधन रूप वैयावृत्य एवं सेवा-शुश्रुषा न करे तो एकासन का प्रायश्चित्त आता है। योगोद्वहन-तप सम्बन्धी दोषों के प्रायश्चित्त
___ आगमसूत्रों का अध्ययन करने हेतु तप-वाचना आदि से सम्बन्धित जो विधि क्रिया की जाती है उसे योगोद्वहन कहते हैं। यदि मुनियों में स्वाध्याय, ज्ञानार्जन, आगम रहस्य आदि जानने की रुचि हो तो यह तपोनुष्ठान दीर्घ अवधि तक प्रवर्तित रहता है। ____ असंघट्टितमन्नादि भुते चेद्यो-गसाधकः। निशि संस्थापयेत्पात्रं पाना(ना) दिविगुण्ठितम्।।55।। भुक्तेऽन्नपानमात्मघ्नं संनिघं क्वथितं च वा। अकाले च मलोत्सर्गं कुरुते मूत्रमेव च।।56।। स्थण्डिलाप्रतिलेखी च स्थण्डिलातीतकर्मकृत्। अमाधुकरवृत्तिस्थः क्रोधं मानं च कैतवम्।।57।। लोभं वा कुरुते गाढं पूर्णां पञ्चमहाव्रती। विराधयति वा किंचिदश्याख्यानं करोति वा।।58।। पैशुन्यं परनिन्दां च भूमौ वा पुस्तकं क्षिपेत्। कक्षायां च स्थापयेद्वा गृह्णीयादुष्करेण वा।।5।। लेपयेदथ निष्पूतैः पुस्तकाशातनाकरः। एतेषु सर्वदोषेषु निःपापः पापनाशनः।।60।। शुभाशुभस्य शब्दस्य गन्धस्य च रसस्य च। स्पर्शस्य चैव रूप्यस्य रागे सजलमिष्यते।।61।। प्रत्येकमेषां विद्वेषे चतुःपादः प्रकीर्तितः। उपविष्टावश्यके च सजलं पापनाशनम्।।62।। सत्यां शक्तावुपविष्टप्रतिक्रमण एव च। आवश्यकस्याकरणे तमालच्छदनेषु च।।63।। एलालवङ्गक्रमुकचन्द्रजातीफलेषु च। भुक्तेषु चैव ताम्बूलपञ्चसौगन्धिकाशने।।64।। तथा च गुरुसंघट्टे दिवास्वापेप्यकारणात्। गन्त्र्या योजनयाने च पादुभिर्योजनक्रमे।।65।। योजनोऽनक्षविषये साधूनां क्रान्त एव वा। अमाधुकरवृत्तौ च वन्दनेऽविधिना कृते।।66।। योजनं