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जैन एवं इतर साहित्य में प्रतिपादित प्रायश्चित्त विधियाँ...147
6. प्राभृतिका-छठा प्राभृतिका दोष बादर और सूक्ष्म द्विविध जानना चाहिए। बादर प्राभृतिका सम्बन्धी आहार ग्रहण करने पर चतुःगुरु तथा सूक्ष्म प्राभृतिका सम्बन्धी आहार ग्रहण करने पर पणग का प्रायश्चित्त आता है।।10-11।।
7. प्रादुष्करण-सातवाँ प्रादुष्करण दोष प्रकटकरण और प्रयासकरण के भेद से दो प्रकार का कहा गया है। प्रकटकरण प्रादुष्करण सम्बन्धी आहार ग्रहण करने पर मासलघु तथा प्रकाशकरण प्रादुष्करण सम्बन्धी आहार ग्रहण करने पर चतुःलघु (आयम्बिल) का प्रायश्चित्त आता है।।11-12।।
8. क्रीत-आठवाँ क्रीत नामक दोष आत्मक्रीत-परक्रीत, द्रव्यक्रीतभावक्रीत के द्वारा चार प्रकार का कहा गया है। द्रव्यआत्मक्रीत, द्रव्यपरक्रीत एवं आत्मभावक्रीत सम्बन्धी आहार ग्रहण करने पर चतुःलघु तथा परभावक्रीत सम्बन्धी आहार ग्रहण करने पर मासलघु का प्रायश्चित्त आता है।।12-13।। ____. प्रामित्य-नौवां प्रामित्य नामक दोष लोकोत्तर और लौकिक भेद से दो प्रकार का है। लोकोत्तर प्रामित्य सम्बन्धी आहार लेने पर मासलघु तथा लौकिक प्रामित्य सम्बन्धी आहार लेने पर चतुःलघु का प्रायश्चित्त आता है।।14।।
10. परिवर्तित-दसवाँ परिवर्तित नामक दोष भी लोकोत्तर और लौकिक भेद से दो प्रकार का है। लोकोत्तर परिवर्तित सम्बन्धी आहार ग्रहण करने पर मासलघु तथा लौकिक परिवर्तित सम्बन्धी आहार ग्रहण करने पर चतुःलघु का प्रायश्चित्त आता है।।15।।
___ 11. अभ्याहृत-ग्यारहवाँ अभ्याहत दोष स्वग्राम और परग्राम के भेद से दो प्रकार का कहा गया है। परग्राम अभ्याहृत दोष भी 1. सप्रत्यवाद स्वदेश परग्राम और 2. अप्रत्यवाद परदेश परग्राम ऐसे दो प्रकार का बताया गया है।
सप्रत्यवाद परग्राम अभ्याहृत सम्बन्धी आहार ग्रहण करने पर चतुःगुरु, अप्रत्यवाद परग्राम अभ्याहृत सम्बन्धी आहार ग्रहण करने पर चतुःलघु तथा स्वग्राम अभ्याहृत सम्बन्धी दोष में मासलघु का प्रायश्चित्त आता है।।16-18।।
__12. उद्भिन्न-बारहवाँ उद्भिन्न दोष तीन प्रकार से सम्भावित होता है-1. पिहित उद्भिन्न 2. दर्दर उद्भिन्न और 3. कपाट उद्भिन्न। इनमें दर्दर उद्भिन्न सम्बन्धी आहार ग्रहण करने पर मासलघु तथा पिहित उद्भिन्न एवं कपाट उद्भिन्न सम्बन्धी आहार ग्रहण करने पर चतु:लघु का प्रायश्चित्त आता है।।18-19।।
13. मालापहृत-तेरहवाँ मालापहृत नामक दोष उत्कृष्ट, मध्यम एवं जघन्य