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जैन एवं इतर साहित्य में प्रतिपादित प्रायश्चित्त विधियाँ... 141
11. पूर्व-पश्चात् संस्तव - आहार देने के पहले और बाद में दाता की प्रशंसा करना, पूर्वपश्चात संस्तव दोष है ।
12. विद्यापिण्ड-विद्या का प्रदर्शन करके भिक्षा प्राप्त करना, विद्यापिण्ड दोष है।
13. मन्त्रपिण्ड - मन्त्र प्रयोग आदि से चमत्कार दिखाकर आहार प्राप्त करना, मन्त्रपिण्ड दोष है।
14. चूर्णपिण्ड-अंजन आदि के प्रयोग से अदृश्य होकर भिक्षा प्राप्त करना अथवा चूर्ण के द्वारा वश करके भिक्षा लेना, चूर्ण पिण्ड दोष है। 15. योगपिण्ड - पादलेप आदि के प्रयोग द्वारा पानी पर चलकर अथवा आकाश गमन करके भिक्षा प्राप्त करना, योगपिण्ड दोष है । 16. मूलकर्म - सौभाग्य के लिए स्नान, रक्षाबंधन, गर्भाधान, गर्भपरिशाटन आदि मूलकर्म करके भिक्षा ग्रहण करना, मूलकर्म दोष है।
• निम्न 10 दोष गृहस्थ एवं मुनि दोनों के द्वारा लगते हैं
संकिय मक्खिय णिक्खित्त, पिहिय साहरिय दायगुम्मीसे । अपरिणय लित्त छड्डिय, एसणदोसा दस हवंति । । (पिण्डनिर्युक्ति-520)
1. शंकित-आधाकर्म आदि दोष की संभावना होने पर भी भिक्षा ग्रहण करना, शंकित दोष है।
2. प्रक्षित- सचित्त आदि पदार्थों से लिप्त हाथ या चम्मच आदि के द्वारा भिक्षा ग्रहण करना, म्रक्षित दोष है।
3. निक्षिप्त-सचित्त पृथ्वी आदि पर रखी हुई भिक्षा ग्रहण करना, निक्षिप्त दोष है।
4. पिहित-सचित्त फल या पृथ्वी आदि से ढका हुआ खाद्य पदार्थ ग्रहण करना, पिहित दोष है ।
5. संहृत-जिस पात्र से भिक्षा दी जा रही हो, उसमें यदि कोई अदेय अशन आदि हो तो उसे अन्यत्र डालकर भिक्षा देना, संहृत दोष है।
6. दायक - जो भिक्षा देने के अयोग्य कहे गये हैं, उनके हाथ से भिक्षा ग्रहण करना, दायकदोष है।
7. उन्मिश्र - सचित्त बीज आदि से मिश्रित भिक्षा ग्रहण करना उन्मिश्र दोष है ।