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140...प्रायश्चित्त विधि का शास्त्रीय पर्यवेक्षण • निम्न 16 दोष मुनि के द्वारा संभावित होते हैं
धाई दूई निमित्ते, आजीव वणीमगे तिगिच्छा य। कोहे माणे माया, लोभे य हवंति दस एए।। पुट्विं पच्छा संथव, विज्जा मंते य चुण्ण जोगे य। उप्पायणाए दोसा, सोलसमे मूलकम्मे य।।
(पिण्डनियुक्ति 408/409) 1. धात्री-पंचविध धाय माताओं की तरह बालक को खिलाकर आहार प्राप्त
करना, धात्री दोष है। 2. दूती-एक गृहस्थ के संदेश को दूसरे गृहस्थ तक संप्रेषित करके भिक्षा
प्राप्त करना, दूती दोष है। 3. निमित्त-भूत, वर्तमान एवं भविष्य के सुख-दुःख आदि बताकर भिक्षा
प्राप्त करना, निमित्त दोष है। 4. आजीव-अपनी जाति, कुल, गण आदि का परिचय देकर भिक्षा प्राप्त
करना, आजीवक दोष है। 5. वनीपक-स्वयं को श्रमण, ब्राह्मण, कृपण, अतिथि और श्वान आदि का
भक्त बताकर या उनकी प्रशंसा करके आहार की याचना करना, वनीपक
दोष है। 6. चिकित्सा-वैद्य की भाँति चिकित्सा बताकर भिक्षा लेना, चिकित्सा
दोष है। 7. क्रोधपिण्ड-अपनी विद्या और तप का प्रभाव या शारीरिक बल दिखाकर
आहार प्राप्त करना, क्रोधपिण्ड दोष है। 8. मानपिण्ड-अपने विषय में लब्धि और प्रशंसात्मक शब्दों को सुनकर गर्व
से भिक्षा की एषणा करना, मानपिण्ड है। 9. मायापिण्ड-वेश परिवर्तन आदि द्वारा गृहस्थ को धोखा देकर आहार
लेना, मायापिण्ड है। 10. लोभपिण्ड-आसक्ति पूर्वक किसी वस्तु विशेष की येन केन प्रकारेण
गवेषणा करना अथवा उत्तम पदार्थ को अतिमात्रा में ग्रहण करना, लोभ पिण्ड है।