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________________ 88...प्रायश्चित्त विधि का शास्त्रीय पर्यवेक्षण भाव होना चाहिए कि मुझे परमात्मा की आज्ञानुसार द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की शुद्धिपूर्वक आलोचना करनी है। इसी के साथ पापाचरणों से निरन्तर छूटने का भाव हो तथा उसके योग्य गुरु की खोज का प्रयास जारी हो तो वह पुरुषार्थ ही पाप की शुद्धि करता है। विगत कुछ वर्षों से आलोचना की परम्परा डायरी के आधार पर प्रवर्तित है। इस विधि के अनुसार आलोचक अपने दोषों को लिखकर देता है और गुरु उसे पढ़कर प्रायश्चित्त लिख देते हैं। मौखिक आलोचना की परम्परा शनैः शनैः कम होती जा रही है। आगमकारों के आशय से लिखित आलोचना भी मंगल वेला में प्रारम्भ करनी चाहिए। सार रूप में कहा जा सकता है कि आलोचना-विधि के सम्बन्ध में जो कुछ कहा गया है वह सब विधिपूर्वक करना चाहिए, क्योंकि विधि रहित आलोचना से विशुद्धि नहीं होती। पंचाशकप्रकरण में बताया गया है कि यदि कुवैद्य रोग की चिकित्सा करे अथवा किसी विद्या को अविधि से साधित किया जाये तो वह निष्फल होती है। कदाचित वह चिकित्सा या साधना सफल भी हो सकती है किन्तु विधि रहित आलोचना से कभी भी शुद्धि नहीं होती, क्योंकि अविधिपूर्वक आलोचना करने पर जिनाज्ञा का भंग होता है। जिनाज्ञा का विधिवत पालन न करने पर चित्त अत्यधिक संक्लेश अर्थात मलिनता को प्राप्त होता है। संक्लेश से अशुभ कर्मों का बन्ध होता है।45 प्रशस्त दिशा- श्वेताम्बर आचार्यों के अनुसार आलोचक को पूर्वाभिमुख, उत्तराभिमुख और चरंती दिशा के अभिमुख होकर आलोचना करनी चाहिए। चरंती दिशा का अभिप्राय है कि जिस दिशा में तीर्थंकर, केवली, मन:पर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, चतुर्दशपूर्वी, नवपूर्वी अथवा युगप्रधान आचार्य विचरण करते हैं।46 - दिगम्बर परम्परा के भगवतीआराधना विजयोदया टीका में भी आलोचना हेतु पूर्वोक्त दिशाओं का निर्देश है।47 आलोचना की प्रायोगिक विधि __ • आलोचक शुभ तिथि, नक्षत्र, वार एवं लग्न के दिन आलोचना करें। विधिमार्गप्रपा48 के अनुसार उस दिन आलोचक सर्वप्रथम जिनालय में चैत्यवंदन करें। फिर सर्व साधुओं को वन्दन कर आयंबिल तप का प्रत्याख्यान करें। यदि
SR No.006247
Book TitlePrayaschitt Vidhi Ka Shastriya Sarvekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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