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________________ 66...प्रायश्चित्त विधि का शास्त्रीय पर्यवेक्षण ___आचार्य वट्टकेर ने मूलाचार में आलोचना के सात प्रकार कहे हैं। तदनुसार वह आलोचना दैवसिक, रात्रिक, ईर्यापथिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक और उत्तमार्थ- इस तरह सात प्रकार की है। इनमें दैवसिक आदि पाँच भेद काल से सम्बन्धित हैं और दो भेद आवश्यक क्रिया सम्बन्धी हैं।12 ___नियमसार में आलोचना के चार प्रकारों की चर्चा की गई है। उनके नाम ये हैं- आलोचन, आलुच्छन, अविकृतिकरण और भावशुद्धि।13 1. आलोचना शब्द का अर्थ पूर्व में स्पष्ट कर चुके हैं। 2. आलुच्छन - कर्म रूपी वृक्ष के मूल जड़ को छेदने में समर्थ समभाव रूप स्वाधीन आत्म परिणाम आलुच्छन कहलाता है 3. अविकृतिकरण - माध्यस्थ भावमा में लीन चेतना का परिणाम अविकृतिकरण कहलाता है। 4. भावशुद्धि - क्रोधादि कषायों से रहित परिणाम भाव शुद्धि रूप कहा जाता है। आलोचना किन स्थितियों में? सामान्यतया आलोचना करने योग्य अनेक स्थान हैं, जिनकी चर्चा प्रायश्चित्त के दस प्रकारों के अन्तर्गत प्रथम आलोचना प्रायश्चित्त में कर चुके हैं यद्यपि निशीथभाष्य में आलोचना के मुख्य तीन प्रकार बतलाये हैं-14 1. विहार आलोचना-शक्ति होने पर भी तप-उपधान, विहार आदि में उद्यम न करने की आलोचना करना। 2. उपसम्पदा आलोचना- विशेष प्रयोजन से आगम ग्रन्थों का अध्ययन आदि संकल्पित कार्य की समाप्ति तक के लिए स्वगच्छ या समुदाय का त्याग कर अन्य गच्छ के आचार्यादि का आश्रय स्वीकार करना उपसम्पदा कहलाता है। अत: उपसम्पदा वाहक मुनि के द्वारा की जाने वाली आलोचना उपसम्पदा आलोचना है। 3. अपराध आलोचना-व्रत आदि में लगने वाले दोषों की विशुद्धि के लिए की जाने वाली आलोचना अपराध आलोचना है। आलोचना मुख्य रूप से उक्त तीन स्थितियों में ही की जाती है इनके अतिरिक्त आलोचना के अन्य स्थान नहीं हैं। विहार आलोचना आदि का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है
SR No.006247
Book TitlePrayaschitt Vidhi Ka Shastriya Sarvekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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