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________________ आलोचना क्या, क्यों और कब?...65 इन परिभाषाओं का मूल आशय यह है कि इस जीवन में जानबूझकर या प्रमादवश अपराध या गलतियाँ हुई हो तो उनको गुरु के सामने निश्छल भाव से कह देना चाहिए तथा उन दुष्कर्मों से परिमुक्त होने का प्रयत्न करना चाहिए। इससे व्यावहारिक और आध्यात्मिक उभय पक्षीय जीवन विकासोन्मुख एवं परिपूर्ण बनता है। आलोचना के एकार्थक शब्द जैन टीका साहित्य ओघनियुक्ति एवं उत्तराध्ययन शान्त्याचार्य टीका10 आदि में आलोचना शब्द के निम्न पर्याय बतलाये गये हैं आलोयणा वियडणा सोही सम्भावदायणा चेव। निंदण गरिह विउट्टण, सल्लुद्धरणंति एगट्ठा ।। आलोचनं विकटनं प्रकाशमाख्यानं प्रादुष्करणमित्यनर्थान्तरम् ।" अर्थात आलोचना, विकटना, शोधि, सद्भावदर्शन, निन्दा, गर्दा, विकुट्टन, शल्योद्धरण, प्रकाशन, आख्यान और प्रादुष्करण- इन समानार्थी शब्दों के द्वारा आलोचना अर्थ को भलीभाँति समझा जा सकता है। आलोचना के मुख्य भेद श्वेताम्बर साहित्य में आलोचना योग्य स्थानों की अपेक्षा इसके तीन प्रकार बतलाये गये हैं जिन्हें मुख्य भेद के अन्तर्गत न रखकर अलग से वर्णित करेंगे। यहाँ दिगम्बर साहित्य में प्रतिपादित आलोचना के प्रकार निम्नलिखित हैं __ भगवती आराधना में आलोचना के दो प्रकार बतलाये गये हैं- 1. ओघ आलोचना और 2. पदविभागी आलोचना। इन्हें सामान्य आलोचना और विशेष आलोचना भी कह सकते हैं। ओघ आलोचना- जिसने अनेक अपराध किये हो अथवा जिसके सर्व व्रतों का खंडन हुआ हो उस मुनि के द्वारा सामान्य रीति से यह निवेदन करना कि- 'मैं पुन: मुनि धर्म स्वीकार करने की इच्छा करता हूँ तथा रत्नत्रय की अपेक्षा आपके मुनि संघ में सबसे कनिष्ठ हूँ ' यह ओघ आलोचना है। पदविभागी आलोचना- भूत, वर्तमान एवं अतीत काल में, जिस देश में, जिस अध्यवसाय में जो कुछ दोष हुआ हो, आचार्य के समक्ष उन दोषों को क्रमपूर्वक कहना, पदविभागी आलोचना है।11
SR No.006247
Book TitlePrayaschitt Vidhi Ka Shastriya Sarvekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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