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आलोचना क्या, क्यों और कब?...63 त्रुटियों का निरीक्षण करना ही यथार्थ आलोचना है। • पंचकल्पचूर्णि के अनुसार
"आ मर्यादायां लोचूदर्शने आलोचना नाम
आलोचना प्रकटना ऋजुभावनेति" निश्छल हृदय से दोषों को प्रकाशित करना आलोचना है। • तत्त्वार्थवृत्ति के उल्लेखानुसार
"आङ् मर्यादायाम् आलोचनं दर्शनं परिच्छेदो
मर्यादया यः स आलोचनं" इस प्रकार आलोचना के उक्त अर्थ मर्यादा के संदर्भ में हैं।
द्वितीय अर्थ के आधार पर विचार किया जाए तो 'आसमन्तात् लोचना' अर्थात अपने दोषों को चारों ओर से देखना आलोचना है।
• भगवतीसूत्र (शतक 19/3) की टीका में इसकी निम्न व्युत्पत्ति दी गई है- "आ अभिविधिना सकल दोषाणां लोचना गुरु पुरतः प्रकाशना आलोचना।"
आत्म प्रदेशों के साथ एकमेक हुए छोटे-बड़े प्रत्येक दोषों को देखकर उन्हें गुरु के समक्ष निवेदन करना आलोचना है।
• आलोचना का व्यापक अर्थ है प्रायश्चित्त के माध्यम से आत्मा का शुद्धिकरण करना अथवा आत्मा पर आवरण के रूप में रहे हुए मलीन संस्कारों को सब तरफ से देखना आलोचना है अथवा मन-वचन-काया रूप अशुभ योगों से जो-जो अकरणीय किया हो, उनको शुद्ध भावपूर्वक ‘लोचना' अर्थात प्रकट रूप में गुरु सम्मुख अनुज्ञापित करना आलोचना है। इस तरह आलोचना के उक्त अर्थ अभिविधि के सन्दर्भ में हैं। . • सामान्य परिभाषा के अनुसार अपने समस्त दोषों को गुरु के समक्ष निष्कपट भाव से कह देना आलोचना कहलाता है। जैनाचार्यों ने आलोचना के इसी अर्थ को भिन्न-भिन्न रूपों में अभिव्यक्त किया है। • आचार्य हरिभद्रसूरि के अनुसार
आलोयणं अकिच्चे, अभिविहिणा दंसणंति लिंगेहिं ।
वइमादिएहिं सम्म, गुरुणो आलोयणा णेया ।। अर्थात गुरु के समक्ष अपने दुष्कृत्यों को बिना छिपाये विशुद्ध भावयुक्त पूर्णतया वाणी आदि से प्रकाशित करना आलोचना है।