SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 128
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्याय - 4 आलोचना क्या, क्यों और कब ? आलोचना जैन साहित्य का एक पारिभाषिक शब्द है, जिसका गृहस्थ एवं मुनि जीवन में अनन्य स्थान है। अपने दोषों एवं गलतियों का निरीक्षण तथा गुरुजनों के समक्ष उनकी अभिव्यक्ति करने का आलोचना उत्तम मार्ग है। जैनाचार्यों ने भिन्न-भिन्न संदर्भों में आलोचना के विभिन्न स्वरूप एवं प्रकार बताए हैं जिनके आचरण से साधक उच्च अवस्था को प्राप्त कर सकता है। आलोचना का अर्थ एवं स्वरूप विमर्श व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ - आलोचना शब्द में दो पद हैं आ + लोचना। 'आ' उपसर्ग वाचक है और लोच् शब्द धात्वर्थक है । 'आ' उपसर्ग दो अर्थों में प्रयुक्त होता है - मर्यादा एवं चारों ओर । पूर्वाचार्यों ने आलोचना शब्द के दोनों अर्थ ग्रहण किये हैं। • प्रवचनसारोद्धार (द्वार 98 की टीका), व्यवहारसूत्र (उद्देशक 10 की टीका), पंचकल्पचूर्णि, (सिद्धसेनगणि कृत), तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति (1 / 15 ) आदि टीका मूलक साहित्य में आ' पद को मर्यादा अर्थ में ग्रहण किया गया है तथा संस्कृत भाषा में 'लोच्' धातु देखना, तलाश करना, प्रकट करना आदि अर्थों प्रयुक्त होता है। तदनुसार आलोचना शब्द की कुछ व्युत्पत्तियाँ इस प्रकार हैं— • प्रवचनसारोद्धार की टीका अनुसार आङ् मर्य्यादायाम् लोच दर्शने, चुरादित्वाणिच् लोचनं आलोचनं 1 प्रकटीकरणम् आलोचना, गुरो पुरतः वचसा प्रकाशनम् ।। ‘आ' उपसर्ग मर्यादा अर्थ में, 'लोच्' धातु देखने अर्थ में और चुरादिगण का ‘निच्' प्रत्यय जुड़कर आलोचन शब्द बना है। गुरु के सामने दोषों को प्रकाशित करना आलोचना कहलाता है । यहाँ मर्यादा अर्थ का सांकेतिक भाव यह है कि आलोचक स्वयं के द्वारा किये गये दुष्कृत्यों को ही देखे, अन्यकृत दोषों पर नजर नहीं डाले। अपनी
SR No.006247
Book TitlePrayaschitt Vidhi Ka Shastriya Sarvekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy