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x... प्रायश्चित्त विधि का शास्त्रीय पर्यवेक्षण
कोई असुविधा नहीं। Cross ventilation होने से स्थान हवादार है। धूप आदि बराबर आती है। तीसरा - चौथा तल्ला होने से बाहरी हलचल का विशेष प्रभाव नहीं पड़ता। साध्वाचार में स्वच्छंदता को कोई स्थान नहीं है परन्तु एकाकी साधना या एकांत का महत्त्व भी कम नहीं। इसी तथ्य को ध्यान में रखकर यहाँ हॉल का निर्माण इस तरह किया गया है कि सभी एक दूसरे के सामने रहते हुए भी अपने आप में अलग रह सकें। इसका अनुभव वहाँ रहकर ही किया जा सकता है।
कोलकाता में आने वाले प्रायः साधु-साध्वियों के चातुर्मास कई वर्षों से आज भी यहीं पर होते हैं अत: कई साधकों के ऊर्जा परमाणु यहाँ पर बसे हुए हैं। आज भी अध्ययन-साधना आदि की अपेक्षा साधु-साध्वी इस स्थान को विशेष महत्त्व देते हैं। यहाँ श्री पूज्यजी की गद्दी भी है तथा शनिवार, रविवार आदि के दिन ध्यान साधना भी होती है। इसी कारण आज भी वहाँ अत्यंत पवित्रता की अनुभूति होती है।
साध्वी सौम्यगुणाजी ने सत्रह वर्ष पूर्व इसी स्थान से पी-एच.डी. सम्बन्धी अध्ययन की रुप रेखा प्रारम्भ की थी। अभी दुबारा कोलकाता आने का मुख्य कारण भी यहाँ के ट्रस्टियों का आग्रह एवं अध्ययन पूर्ण करवाने का आश्वासन था। जिस तथ्य का यहाँ के पदाधिकारियों ने पूरा ध्यान भी रखा। उन्हें अध्ययन योग्य पूर्ण सुविधाएँ प्रदान की। इसी के साथ सामाजिक गतिविधियों से भी यथासंभव मुक्त रखने का प्रयास किया। आप ही लोगों की बदौलत सौम्याजी का कार्य पूर्णता के शिखर को स्पर्श कर पाया है।
सज्जनमणि ग्रंथमाला प्रकाशन जिनरंगसूरि पौशाल के समस्त भूतपूर्व एवं वर्तमान पदाधिकारियों की अनुमोदना करता है एवं इनका आभार अभिव्यक्त करता है कि उन्होंने श्रुत संवर्धन के क्षेत्र में इतना उत्साह दिखाया। सौम्यगुणाजी द्वारा लिखित शोध साहित्य के Composing तथा एक पुस्तक के प्रकाशन का लाभ लेकर अपने योगदान को चिरस्मृत बना दिया है।
" मंजिल सभी को दिखती है, सीढ़ियों पर किसी की नजर नहीं । यदि सीढ़ियाँ न होती तो, राही कभी पाता मंजिल नहीं ।
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इस शोध यात्रा के प्रथम एवं अंतिम सोपान के रूप में सहयोगी और साक्षी बनी श्री जिनरंगसूरि पौशाल एवं वहाँ के ट्रस्टीगण इसी तरह साधु-स -साध्वियों की संभालना करते रहें तथा अपने योगदान द्वारा जिन शासन की पताका को सर्वोच्च शिखर पर लहराएँ यही मंगल कामना करते हैं।