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प्रायश्चित्त दान की उपयोगिता एवं उसके प्रभाव...53 आलोयण परिणओ, सम्मं संपट्टिओ गुरु ।
जइ अंतरावि कालं, करेइ आराहओ तहवि सगासे ।। किसी साधक ने शुद्ध आलोचना करने के लिए अपने गाँव से प्रस्थान किया हो और प्रायश्चित्त लेने के पहले ही उसकी बीच में मृत्यु हो जाए, तो भी वह आराधक कहा जाता है जबकि अशुद्ध आलोचना करने वाला विराधक बनता है।
सार रूप में कहा जा सकता है कि प्रायश्चित्त जैन साधना का महत्त्वपूर्ण पक्ष है। इसके माध्यम से साधक अपने दोषों की आलोचना करते हुए, कृत पापों से मुक्त बनता है। यदि प्रायश्चित्त की मनोवैज्ञानिक समीक्षा की जाए तो यह मन शुद्धि का श्रेष्ठ उपाय है। गलती करने के बाद कई बार व्यक्ति उसके पश्चाताप की अग्नि में जलता रहता है, प्रायश्चित्त के माध्यम से वह विशुद्ध हो जाता है तथा मन भी शांत बन जाता है। शांत और निराकुल मन आध्यात्मिक, बौद्धिक, शारीरिक एवं भौतिक विकास में सहायक बनता है। प्रायश्चित्त अर्थात एक प्रकार का दंड और यह अपराध नियंत्रण के लिए आवश्यक है। स्वयं में सुधार लाने का यह उत्तम प्रयोग है। हमारे शरीर में कई ऐसी ग्रंथियाँ हैं जो क्रोध, अपराध आदि का भाव उत्पन्न होने पर असंतुलित हो जाती हैं और उनके स्राव में न्यूनाधिकता आ जाती है जिसका प्रभाव सम्पूर्ण शरीर एवं क्रियाकलापों पर पड़ता है। प्रायश्चित्त के द्वारा उसे संतुलित किया जा सकता है।
यदि प्रबंधन के क्षेत्र में प्रायश्चित्त की समीक्षा की जाए तो उसका विशेष प्रभाव स्वप्रबंधन, जीवन प्रबंधन, समाज प्रबंधन, अपराध प्रबंधन आदि पर हो सकता है। प्रतिषिद्ध आचरण करने पर प्रायश्चित्त दिया जाता है। ऐसा करने से किसी भी गलत परम्परा का प्रारंभ नहीं होता। दूसरे स्वयं प्रायश्चित्त हेतु उपस्थित होने से स्वजीवन से दुर्गुणों का एवं दोषों का शोधन होता है तथा स्वयं की कमियां जानने पर व्यक्ति उसे निकालने का प्रयास करता हुआ जीवन में उत्तरोत्तर प्रगति कर सफलता प्राप्त करता है। गुरु के द्वारा सामर्थ्य एवं अपराध की तरतमता के आधार पर प्रायश्चित्त दिया जाता है जिससे समूह संचालन एवं अनुशासन की कला का ज्ञान होता है। दंड का भय अपराध नियंत्रण में भी सहायक होता है। विविध प्रकार के प्रायश्चित्त होने से अपराधी को यथायोग्य दंड दिया जा सकता है। जब व्यक्ति के मन में भय स्थापित हो जाए कि अमुक