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तप के भेद-प्रभेद एवं प्रकारों का वैशिष्ट्य...33 है।32 स्थानांगसूत्र में रोगोत्पत्ति के नौ कारणों में दो कारण भोजन सम्बन्धी है - "अच्चासणाए, अहियासणाए' अतिआहार और अहितकारी आहार से स्वस्थ मनुष्य भी सहसा रोगी हो जाता है 33 जबकि हित, मित एवं अल्प भोजन करने से वैद्य चिकित्सा की आवश्यकता नहीं रहती। विदरनीति में परिमित भोजन के छह गुण बताते हुए लिखा है कि- जो व्यक्ति अल्प भोजन करता है उसका आरोग्य, आयुष्य, बल और सुख बढ़ता है, उसकी सन्तान सुन्दर होती है तथा लोग उसके लिए पेटू आदि बुरे शब्दों का प्रयोग नहीं करते। अल्प भोजन से स्वास्थ्य सुन्दर रहता है, प्रमाद नहीं बढ़ता, स्वाध्याय-ध्यान आदि आनन्द पूर्वक होते हैं।34
ऊनोदरी तप में साधक पेट को पूरा नहीं भरता, कुछ रिक्त रखता है। इससे पाचन संस्थान विकृत नहीं होता। आयुर्वेद की दृष्टि से उदर का आधा भाग भोजन के लिए, एक चौथाई भाग पानी के लिए और शेष हवा के लिए सुरक्षित रहना चाहिए। इस क्रम को खण्डित करने वाला व्यक्ति स्वस्थ नहीं रह सकता। कभी-कभार स्वादिष्ट एवं मनोनुकूल भोजन मिलने पर अधिक मात्रा में भी आहार कर लिया जाता है। उस स्थिति में पानी और हवा का स्थान भी आहार ग्रहण कर लेता है जिससे अत्यधिक बेचैनी का अनुभव होता है और श्वास लेने में भी कठिनाई होती है। अधिक आहार से आलस्य, प्रमाद और भारीपन महसूस होता है। अजीर्ण जैसे भयंकर रोग हो जाते हैं। मुँह में से दुर्गन्ध आती है, पेट में 'अफारा' अतिसार आदि अन्य अनेक बीमारियाँ उत्पन्न हो जाती हैं जबकि कम खाने वाला हमेशा प्रसन्न रहता है। ___आचार्य शिवकोटि ने मूलाराधना में ऊनोदरी के सुफल की चर्चा करते हुए लिखा है कि ऊनोदरी तप से कर्मों की निर्जरा और आत्मशुद्धि तो होती ही है। इससे निद्रा विजय, स्वाध्याय रुचि, आत्मसंयम, इन्द्रियजय और समाधि भी प्राप्त होती है।35
भाव ऊनोदरी के परिणामस्वरूप कषाय मन्दता से शान्ति में अभिवृद्धि होती है। अल्प भाषण से वाक् सिद्धि प्राप्त होती है और सर्वजन प्रिय बनता है। कलह न करने से आत्मिक प्रसन्नता और समाधि मिलती है। कल्पसूत्र में यहाँ तक कहा गया है कि
जो उवसमइ तस्स अस्थि आराहणा। जो न उवसमइ तस्स णत्थि आराहणा।।