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32... तप साधना विधि का प्रासंगिक अनुशीलन आगमों से अब तक
4. भाव ऊनोदरी- भाव ऊनोदरी का अर्थ है अन्तरंग अशुभ वृत्तियों को कम करना। भाव ऊनोदरी दो प्रकार से की जाती है। पहली दाता के भावों की अपेक्षा से और दूसरी स्वयं के भावों की अपेक्षा से ।
(i) दाता के भावों की अपेक्षा भिक्षाचर्या करने वाला मुनि यह अभिग्रह करे कि आज मुझे अमुक स्त्री या पुरुष अलंकार से युक्त हो या रहित, बालक हो या वृद्ध, विशिष्ट वस्त्रों से भूषित हो, हंसता हुआ या रोता हुआ हो, अमुक वर्ण का हो, कोप या प्रसन्न मुद्रा में हो - इत्यादि स्थितियों में भिक्षा देगा तो ही ग्रहण करूँगा, अन्यथा उपवास करूंगा। इस प्रकार का संकल्प करना दाता की अपेक्षा से भाव ऊनोदरी तप है | 28
(ii) स्वयं के भावों की अपेक्षा - विषय - कषायों को क्षीण करना, दूसरी भाव ऊनोदरी है।
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एक शिष्य ने प्रभु से प्रश्न किया कि भाव ऊनोदरी क्या है और वह कितने प्रकार की है ? भगवान ने जवाब दिया- वह छह प्रकार की है।
"अप्पकोहे, अप्पमाणे, अप्पमाए, अप्पलोहे, अप्पसद्दे, अप्पझंझे से तं भावो मोयरिया । "
क्रोध को अल्प करना, मान को अल्प करना, माया को अल्प करना, लोभ को अल्प करना, शब्दों का प्रयोग कम करना, कलह कम करना यह भाव ऊनोदरी है। 29
दशवैकालिक अगस्त्यचूर्णि के अनुसार क्रोध आदि चार कषायों के उदय का निरोध और उदय प्राप्त का विफलीकरण करना, भाव ऊनोदरी है | 30 5. पर्यव ऊनोदरी - पूर्वोक्त द्रव्य, क्षेत्र आदि चारों अभिग्रहों के साथ भिक्षा ग्रहण करना, पर्यव ऊनोदरी तप है | 31
लाभ - ऊनोदरी तप का परिपालन करने से निम्न लाभ होते हैं - आहार शरीर की प्राथमिक आवश्यकता है। जब से शरीर की रचना प्रारम्भ होती है (माता के गर्भ में) तब प्रथम समय में ही प्राणी आहार ग्रहण करता है और प्राणान्त तक आहार लेता रहता है तो शरीर के लिए भोजन जरूरी है, किन्तु वह मात्रा और नियम से विरुद्ध हो तो अमृत की जगह जहर का काम कर देता है । मनुस्मृति में कहा गया है कि अधिक भोजन करने से स्वास्थ्य बिगड़ता है, आयुष्य कम होती है और अकाल में मृत्यु हो जाये तो परलोक भी बिगड़ जाता