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26...तप साधना विधि का प्रासंगिक अनुशीलन आगमों से अब तक
इन तप विधियों का वर्णन अध्याय-4 में किया जाएगा। विशेष इतना है कि आगमों में जितने प्रकार के तप बताये गये हैं वे सब इत्वरिक तप के अन्तर्गत आते हैं। इस तरह इत्वरिक तप में अनेक प्रकार की तपस्याओं का अन्तर्भाव होता है।
यहाँ इत्वरिक तप की पूर्वोक्त परिभाषा के अनुसार दो प्रश्न उपस्थित होते हैं। पहला यह है कि मूल आगम में इत्वरिक तप की गणना 'चउत्थ भत्ते' चतुर्थ भक्त अर्थात एक अहोरात्रि के उपवास से प्रारम्भ की गयी है। फिर चतुर्थ भक्त से कम समय के उपवास को अनशन तप नहीं मानना चाहिए, किन्तु आचार्य आत्मारामजी महाराज ने अपनी आत्मज्ञान प्रकाशिका हिन्दी टीका में दो घड़ी के आहार-त्याग को भी अनशन तप माना है। यह मान्यता उनकी परम्परा में प्रचलित हो सकती है, क्योंकि प्रकीर्ण तप के भेद में नवकारसी, पौरुषी आदि को भी तप माना है। सम्भवत: उसी आधार पर यहाँ दो घड़ी के आहार त्याग को अनशन में गिना गया है।
ध्यातव्य है कि मूल आगम में जहाँ अनशन तप का वर्णन है, वहाँ कम से कम चतुर्थ भक्त को ही अनशन तप माना है। इससे कम अवधि का आहार त्याग ऊनोदरी आदि तप की गणना में लिया गया है।
दूसरा प्रश्न यह उभरता है कि इत्वरिक तप उत्कृष्ट छह मास का ही क्यों माना गया? क्या छह मास से अधिक काल का इत्वरिक तप नहीं हो सकता है ? जबकि इतिहास और आगमकार कहते हैं कि प्रथम तीर्थङ्कर भगवान ऋषभदेव ने एक वर्ष का कठोर तप किया था और उनके शासन में भी एक वर्ष का उत्कृष्ट तप माना गया है। मध्य के बाईस तीर्थङ्करों के शासन में उत्कृष्ट तप आठ मास का कहा गया है, तब यह तप किस तप की गणना में माना जायेगा? ___ इसका समाधान यह है कि इत्वरिक तप का यह वर्णन भगवान महावीर के शासनकाल की अपेक्षा से किया गया है। चरम तीर्थङ्कर के शासनकाल में इत्वरिक तप उत्कृष्ट छह मास का ही होता है। इस काल मर्यादा के पीछे मुख्य कारण उस युग की शारीरिक स्थिति है यानी उस युग में साधक अधिकतम छह मास तक का ही उपवास व्रत कर सकता है। इससे अधिक शारीरिक बल कार्य नहीं करता है।
कुछ वर्षों पहले की बात है। एक सन्त प्रवर ने छह मास से भी अधिक दिनों का उपवास व्रत किया था, किन्तु वे अचित्त जल का सेवन करते हुए इस