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18... तप साधना विधि का प्रासंगिक अनुशीलन आगमों से अब तक
" हत्थेणं सुत्थेणं अत्थेणं तदुभएणं सम्मं धारणीयं चिरं पालणीयं गुरुगुणेहिं वुड्डाहि नित्यारपारगाहोह । "
• तत्पश्चात तप इच्छुक एक खमासमण देकर गुरुमुख से उपवास, आयंबिल या एकासन आदि का प्रत्याख्यान करें।
सर्वतप ग्रहण की यह विधि जीत व्यवहार के अनुसार कही गयी है । प्रस्तुत विधि का यह रूप श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में ही प्रचलित है। दिगम्बर आदि अन्य जैन आम्नायों में इस तरह की विधि नहीं की जाती है।
तप पारने की विधि
• उपाश्रय में जाकर ज्ञान पूजा करें। • फिर इरियावहि प्रतिक्रमण करें। • फिर "अमुक तप पारवा मुँहपत्ति पडिलेहुं" कहकर मुंहपत्ति पडिलेहण करके दो वांदणा देवें। फिर “इच्छा० संदि० भगवन्! अमुक तप पारावणत्थं काउस्सग्गं करावेह"। गुरु कहें " करावेमो " । फिर एक खमासमण देकर " इच्छाकारेण तुम्हें अम्हं अमुक तप पारावणत्थं चेइयं वंदावेह, वासनिक्खेवं करेह" ऐसा कहें। तब गुरु 'वंदावेमो करेमो' कहते हुए शिष्य के मस्तक पर वासक्षेप डालें।
• फिर तीन खमासमण देकर बायाँ घुटना ऊँचा करके "णमुत्थुणं से जयवीयराय” पर्यन्त चैत्यवन्दन करें। • फिर 'अमुक तप पारावणत्थं करेमि काउसग्गं' अन्नत्थ सूत्र कहकर एक नवकार का काउसग्ग करें। कोई सी भी स्तुति कहें। फिर बैठकर " णमुत्थुणं" कहें।
• अन्त में नीचे हाथ रखकर इच्छा. संदि. भगवन्! अमुक तप करते हुए जो भी कोई अविनय आशातना हुई हो वह सब मन-वचन-काया से मिच्छामि दुक्कडं ऐसा बोलें।
गुरु कहे - " नित्थार पारगा होह" फिर यथाशक्ति पच्चक्खाण करें। • अमुक तप आलोयण निमित्तं करेमि काउसग्गं पूर्वक अन्नत्थ सूत्र कहकर चार लोगस्स का काउसग्ग करें। पूर्णकर प्रकट में लोगस्स कहें। अतिथि सत्कार करें। यथाशक्ति उद्यापन करें।
भारतीय संस्कृति के विविध वर्गों में तप का वैशिष्ट्य एवं महत्त्व रहा हुआ है। तप कर्म निर्जरा का महत्त्वपूर्ण अंग माना गया है। इसी हेतु से ऋषि मुनियों द्वारा विभिन्न ग्रन्थों में तप का स्वरूप प्रतिपादित किया गया है । इस अध्याय में तप के स्वरूप का विवरण करते हुए विविध तप आराधनाओं में पालने योग्य