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________________ उपसंहार...231 तीर्थङ्कर परमात्मा ने जगत के प्राणिमात्र के हितार्थ चार प्रकार के धर्म का उपदेश दिया है दान, शील, तप और भावना । इसका तात्पर्य है कि जितने भी तीर्थङ्कर पुरुष हुए हैं सभी ने धर्म का सामान्य स्वरूप दान, शील, तप और भावना - ऐसे चार प्रकार का ही वर्णित किया है। यहाँ 'दान' शब्द से अभयदान, ज्ञानदान, सुपात्रदान और अनुकम्पादान का उपदेश किया। 'शील' शब्द से विरति, व्रत, नियम, प्रत्याख्यान या संयम की देशना दी। 'तप' शब्द से शरीर, मन और आत्मा की शुद्धि करने वाली विविध क्रियाओं का विधान किया और 'भाव' शब्द से चैतसिक परिणामों को चढ़ते हुए रखने का अनुरोध किया। इस प्रकार धर्म के मुख्य अंगों में तप को विशिष्ट स्थान प्राप्त है। मोक्षमार्ग का निरूपण करते समय भी जैन महर्षियों ने तप का खास निर्देश किया है। जैसे कि नाणं च दंसणं चेव, चरित्तं च तवो तहा । पयमग्गमणुपत्ता, जीवा गच्छन्ति सोग्गइं ।। इस मार्ग को प्राप्त हुए जीव मोक्ष ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप में जाते हैं। - इस कथन का तात्पर्य यह है कि सबसे पहले मुमुक्षु को जीव अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञान होना चाहिए, फिर तत्त्वों पर पूर्ण श्रद्धा होनी चाहिए, फिर चारित्र अर्थात् वीतराग प्राप्ति के लिए पुरुषार्थ करना चाहिए और अन्त में इच्छा निरोध रूप तप भी करना चाहिए। उस स्थिति में ही साधक मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है। जैन धर्म में नवपद आराधना को अत्यधिक महत्त्व प्राप्त है उसके निमित्त चैत्र और आश्विन महीने में नौ-नौ दिन पर्यन्त आयंबिल की तपस्या की जाती है। इस नवपद में निम्न पदों का अन्तर्भाव होता है 1. अरिहन्त, 2. सिद्ध, 3. आचार्य, 4. उपाध्याय, 5 साधु, 6. दर्शन, 7. ज्ञान, 8. चारित्र और 9. तप। तात्पर्य है कि नव आराध्य पदों में तप को विशिष्ट स्थान दिया गया है। जैन धर्म यह मानता है कि जो आत्मा बीस स्थानों से सम्बन्धित एक
SR No.006246
Book TitleTap Sadhna Vidhi Ka Prasangik Anushilan Agamo se Ab Tak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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