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तपोयोग का ऐतिहासिक अनुशीलन एवं तुलनात्मक अध्ययन...225 जैन विचारणा के कायक्लेश तप को स्पष्ट करता है। यद्यपि बौद्ध-विचारणा में आसनों की साधना एवं शीत-ताप सहन करने की धारणा उतनी कठोर नहीं है जितनी जैन-परम्परा में है।
4. भिक्षाचर्या तप, जैन और बौद्ध दोनों आचार-प्रणालियों में स्वीकृत है, यद्यपि भिक्षा नियमों की कठोरता जैन-साधना में अधिक है। ____5. विविक्त शयनासन तप भी बौद्ध विचारणा में स्वीकृत है। बौद्ध ग्रन्थों में अरण्यनिवास, वृक्ष मूल-निवास, श्मशान निवास करने वाले (जैन परिभाषा के अनुसार विविक्त शयनासन तप करने वाले) धुतंग भिक्षुओं की प्रशंसा की गयी है।
पूर्व की भाँति आभ्यन्तरिक तप के छह भेद भी बौद्ध-परम्परा में मान्य रहे हैं जैसे -
6. प्रायश्चित्त, बौद्ध-परम्परा और वैदिक-परम्परा उभय में स्वीकृत रहा है। बौद्ध ग्रन्थों में प्रायश्चित्त के लिए प्रवारणा आवश्यक मानी गयी है।
7. विनय तप के सम्बन्ध में दोनों ही धर्म परम्पराएँ एकमत हैं।
8. जैन विचारणा की भाँति बौद्ध-परम्परा में भी बुद्ध, धर्म, संघ, रोगी, वृद्ध एवं शिक्षार्थी भिक्षुक की सेवा का विधान है।
9. बौद्ध-परम्परा में स्वाध्याय एवं उसके विभिन्न अंगों का विवेचन भी उपलब्ध होता है। बुद्ध ने वाचना, पृच्छना, परावर्तना एवं चिन्तन को समान महत्त्व दिया है। ___10. व्युत्सर्ग के सम्बन्ध में यद्यपि बुद्ध का दृष्टिकोण मध्यममार्गी है तथापि वे इसे अस्वीकार नहीं करते हैं। व्युत्सर्ग के आन्तरिक प्रकार तो बौद्ध-परम्परा में भी उसी प्रकार स्वीकृत रहे हैं जिस प्रकार वे जैन दर्शन में हैं। ___11. ध्यान के सम्बन्ध में बौद्ध दृष्टिकोण जैन-परम्परा के निकट ही आता है। वहाँ चार प्रकार के ध्यान इस प्रकार माने गये हैं -
(i) सवितर्क-सविचार-विवेकजन्य प्रीति सुखात्मक, प्रथम ध्यान। (ii) वितर्क-विचार रहित समाधिज प्रीति सुखात्मक, द्वितीय ध्यान।
(iii) प्रीति और विराग से उपेक्षक हो स्मृति और सम्प्रजन्य से युक्त उपेक्षा स्मृति सुख विहारी, तृतीय ध्यान।
(iv) सुख-दुःख एवं सौमन्य-दौर्मनस्य से रहित असुख-दुःखात्मक उपेक्षा