SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 290
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 224...तप साधना विधि का प्रासंगिक अनुशीलन आगमों से अब तक ___बौद्ध-साहित्य में स्वतन्त्र रूप से तप का कोई वर्गीकरण उपलब्ध नहीं होता है यद्यपि मज्झिमनिकाय के कन्दरकसुत्त में एक वर्गीकरण देखा जाता है जो मनुष्य की श्रेष्ठता एवं निकृष्टता को उजागर करता है। वह चतुर्विध मनुष्य की अपेक्षा इस प्रकार है - 1. कुछ मानव आत्म तपस्वी हैं, परन्तु पर तपी नहीं हैं। इस वर्ग के अन्दर कठोर तपश्चर्या करने वाले तपस्वीगण आते हैं, जो स्वयं को कष्ट देते हैं। लेकिन दूसरे को नहीं। 2. कुछ मनुष्य पर-तपी हैं आत्म-तपी नहीं। इस वर्ग में बधिक एवं पशुबलि देने वाले आते हैं, जो दूसरों को ही कष्ट देते हैं। 3. तीसरी श्रेणी के मनुष्य आत्म-तपी भी होते हैं और पर-तपी भी। इस वर्ग में तपश्चर्या सहित यज्ञ-याज्ञ करने वाले लोग आते हैं जो स्वयं भी कष्ट उठाते हैं और दूसरे को भी कष्ट देते हैं। 4. चौथी श्रेणी के मनुष्य न आत्म-तपी होते हैं और न ही पर-तपी अर्थात् न तो स्वयं को कष्ट देते हैं और न औरों को ही कष्ट देते हैं। बुद्ध ने उक्त चतुः प्रकारों में से अन्तिम प्रकार को श्रेष्ठ माना है। उन्होंने इस सम्बन्ध में उपदेश देते हुए कहा है कि वही तप लाभदायी है जिसमें न तो स्वपीड़न हो और न ही पर-पीड़न। जहाँ तक जैन विचारणा का प्रश्न है, वह उपरोक्त वर्गीकरण में पहले और चौथे को स्वीकार करेगी और कहेगी कि यदि स्वयं के कष्ट उठाने से दूसरों का हित होता हो और हमारी मानसिक शुद्धि होती हो, तो पहला वर्ग ही सर्वश्रेष्ठ है और चौथा वर्ग मध्यम-मार्ग है। यदि हम जैन धर्म और गीता में वर्णित तप के विभिन्न प्रभेदों पर विचार करके देखें, तो उनमें से अधिकांश बौद्ध-परम्परा में मान्य है। डॉ. सागरमल जैन के अनुसन्धानात्मक दृष्टिकोण के अनुसार जैन-परम्परा द्वारा आचरणीय तप के 12 प्रभेदों में से 11 बौद्ध-परम्परा में मान्य प्रतीत होते हैं। ___1. बौद्ध भिक्षुओं के लिए अति भोजन वर्जित है। साथ ही केवल एक समय भोजन करने का आदेश है जो जैन मत के ऊनोदरी तप से मिलता है। गीता में भी योग-साधना के लिए अति भोजन वर्जित है। 2. बौद्ध भिक्षुओं के लिए रसासक्ति का निषेध है जो जैन मत के रस परित्याग के समकक्ष है। 3. बौद्ध-साधना में विभिन्न सुखासनों की साधना का विधान मिलता है जो
SR No.006246
Book TitleTap Sadhna Vidhi Ka Prasangik Anushilan Agamo se Ab Tak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy