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220...तप साधना विधि का प्रासंगिक अनुशीलन आगमों से अब तक उद्यापन में समर्थ होने के बावजूद भी वैसा सुकृत कर्म न करें तो उसकी निन्दा नहीं करनी चाहिए। प्रत्युत स्वशक्ति के अनुसार उद्यापन करना चाहिए। उद्यापन सम्बन्धी सामग्री
किसी भी व्रत-तप के पूर्ण होने पर उसकी ख्याति एवं उसे आत्मस्थ करने के लिए यथानिर्दिष्ट संख्या में अथवा यथाशक्ति ज्ञान-दर्शन-चारित्र के उपकरण जिनशासन के आराधकों को अर्पित करने चाहिए। उद्यापन में स्थूल रूप से यही विधि की जाती है। साथ ही साधर्मिक वात्सल्य एवं संघ पूजा भी करते हैं।
यह उद्यापन स्वगृह, उपाश्रय अथवा विशाल जिनमन्दिर आदि में सजावट पूर्वक करना चाहिए।
सामान्यतया उद्यापनकर्ता को त्रिगड़ा बनवाना चाहिए क्योंकि स्नात्रपूजा आदि के समय पंचधातु की प्रतिमा इसमें विराजमान करते हैं। पंचधातु की प्रतिमा को विराजित करने के लिए छोटा-सा सिंहासन निर्मित करवाना चाहिए। यदि शक्ति हो तो जितने छोड़ का उजमणा हो उतनी ही संख्या में त्रिगड़े बनवाने चाहिए। इससे स्व की आराधना तथा दूसरों को अनुमोदन का अवसर प्राप्त होता है।
उद्यापनकर्ता को आवश्यकतानुसार उपाश्रय निर्माण अथवा उसकी व्यवस्था हेतु कुछ राशि का उपयोग करना चाहिए। उपाश्रय भाव आराधना का सर्वश्रेष्ठ स्थान है। वहाँ गृहस्थ एवं मुनियों के द्वारा नियमित रूप से सामायिक, पौषध, स्वाध्याय आदि कई धार्मिक आराधनाएँ की जाती हैं। शास्त्रीय नियमानुसार उपाश्रय का निर्माण श्रावकों के उद्देश्य से करवाना चाहिए, साधुओं के निमित्त नहीं। उपाश्रय होने से जिनवाणी श्रवण का लाभ सहज मिल जाता है।
उद्यापनकर्ता को सम्यग्दर्शन की आराधना हेतु नूतन चैत्य का निर्माण, जीर्णोद्धार, प्रतिमा निर्माण, प्रतिष्ठा कार्य आदि में राशि का सद्व्यय करना चाहिए। इसी तरह सम्यक् ज्ञान एवं सम्यक् चारित्र के साधन भी निर्मित करने चाहिए।
उद्यापन निमित्त अर्पित किये जाने वाले द्रव्य (राशि) को निम्न चार हिस्सों में बांट देना चाहिए - दर्शन, ज्ञान, चारित्र और उनके आराधक साधर्मिक गृहस्थ एवं मुनियों के लिए। जिनशासन का मूल श्रुतज्ञान है तथा उस ज्ञान की भक्ति परमावश्यक है अतः सम्यक् ज्ञान की आराधना हेतु आगम-शास्त्र लिखवाने चाहिए, ज्ञान सामग्री रखने हेतु चन्दन-काष्ठादि के सुन्दर कपाट