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तपोयोग का ऐतिहासिक अनुशीलन एवं तुलनात्मक अध्ययन... 215
जैन साधना तपस्वी एवं योग साधना का समन्वित रूप में प्रतिनिधित्व करती है जबकि बौद्ध एवं गीता के आचारदर्शन योग-साधना का प्रतिनिधित्व करते हैं। फिर भी वे सभी अपने विकास के मूल केन्द्र से पूर्ण अलग नहीं हैं। जैन आगम आचारांगसूत्र का द्यूत अध्ययन, बौद्ध ग्रन्थ विशुद्धिमग्ग का धूतंगनिद्देस और हिन्दू साधना की अवधूत गीता आचार - दर्शनों के किसी एक ही मूल केन्द्र की ओर इंगित करते हैं । जैन साधना का तपस्वी मार्ग तापस-मार्ग का ही अहिंसक संस्करण है। 2
बौद्ध एवं जैन दर्शन में जो विचार-भेद हैं, उसके पीछे एक ऐतिहासिक कारण है। यदि मज्झिमनिकाय में वर्णित बुद्ध के उस कथन का ऐतिहासिक मूल्य समझा जाये तो यह प्रतीत होता है कि बुद्ध ने प्रारम्भिक साधकीय जीवन में कई कठोर तप किये थे।
पं. सुखलालजी कहते हैं कि अवधूत मार्ग ( तप का अत्यन्त स्थूल रूप) में जिस प्रकार के तपो मार्ग का आचरण किया जाता था बुद्ध ने वैसे ही उग्र तप किये थे। भगवान महावीर और गौशालक तपस्वी तो थे ही, किन्तु उनकी तपश्चर्या में न अवधूतों की तपश्चर्या का अंश था और न ही तापसों की, वे तो यौगिक साधक थे।
गीता में भी तप के योगात्मक स्वरूप पर ही अधिक बल दिया गया है। गीताकार ने ‘तपस्विभ्योऽधिकोयोगी' कहकर इसी तथ्य को और अधिक स्पष्ट कर दिया है। बौद्ध परम्परा और गीता तप के योग पक्ष पर अधिक बल देती है जबकि जैन दर्शन में उसके पूर्व रूप भी स्वीकृत रहे हैं।
यदि कालक्रम की दृष्टि से विचार करते हैं तो प्रत्येक तीर्थङ्करों के शासनकाल में तप का अस्तित्व विद्यमान रहता है। तप (व्रत) के अभाव में धर्म की कोई भी परम्परा टिक नहीं सकती । तप है तो धर्म, धर्म है तो तीर्थङ्कर, तीर्थङ्कर है तो मोक्षमार्ग और मोक्षमार्ग है तो आत्मस्वरूप की उपलब्धि है।
यदि आगम साहित्य या प्राचीन साहित्य की अपेक्षा विचार करते हैं तो आचारांगसूत्र के उपधानश्रुत नामक नौवें अध्ययन में भगवान महावीर के तपोमय, त्यागमय जीवन का सजीव चित्रण किया गया है। तदनन्तर सूत्रकृतांगसूत्र, स्थानांगसूत्र, भगवतीसूत्र, उपासकदशासूत्र आदि में तप के विविध पहलुओं पर विचार किया गया है। इसी तरह अन्य आगम ग्रन्थों में भी