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अमृत नाद
प्राच्यकाल से ही भारतीय परम्परावर्त्ती बौद्ध एवं जैन ग्रन्थों में तप की चर्चा प्राप्त होती है। दीक्षा के पश्चात तीर्थंकर परमात्मा छद्मस्थ अवस्था का अधिकतम काल तप साधना में ही व्यतीत करते हैं। भगवान महावीर स्वयं एक दीर्घ तपस्वी थे। उन्होंने तयुगीन प्रचलित तप प्रणालियों में क्रान्तिकारी संशोधन करते हुए देह कष्ट को प्रधानता न देकर ध्यान एवं आश्रव द्वारों के निरोध को तप से जोड़ा । इन्द्रिय लोलुपता एवं देह ममत्व का त्याग ही उपवास आदि तप का प्रधान उद्देश्य है। जैन मत में स्वशक्ति के अनुसार बाह्य एवं आभ्यंतर तप की प्ररूपणा की गई है और इन दोनों के द्वारा कर्म निर्जरा को संभव माना है।
वर्तमान में कई लोग तप को शारीरिक कष्टदायक एवं कषाय वर्धक मानते हैं परन्तु यदि तप के सम्बन्ध में वैज्ञानिक, आध्यात्मिक, शारीरिक आदि दृष्टिकोणों से विचार किया जाए तो यह एक सुसाध्य क्रिया है । आजकल अधिकांश रोगों एवं समस्याओं का मुख्य कारण अनियंत्रित और अनियमित खान-पान है। इस युग में डाइटिंग, एनिमा, विटामिन टेबलेट्स आदि की बढ़ती आवश्यकता को नियंत्रित करने में तप ही सहायक हो सकता है। आज तप के अभाव में वर्तमान पीढ़ी सत्पथ से भटक रही है। तप शारीरिक स्वस्थता के साथ आन्तरिक आनंद एवं स्फुर्ति की भी अनुभूति करवाता है अत: अपने-अपने सामर्थ्य के अनुसार सभी को तप साधना अवश्य करनी चाहिए।
साध्वी सौम्यगुणाजी की बाल्यकाल से ही तप साधना में रुचि रही हैं। इसी का परिणाम है कि वे अल्पायु में ही श्रेणी तप, मासक्षमण, चत्तारि अट्ठ दस दोय, बीशस्थानक, नवपद ओली आदि कई तपस्याएँ कर चुकी हैं और आज भी तप साधना में संलग्न हैं। अध्यात्म निमग्ना प्रवर्त्तिनी महोदया पूज्या गुरुवर्य्या श्री की अनायास कृपा वृष्टि इन पर शुरू से ही रही है। और उसी की फलश्रुति रूप वे उन्हीं के ज्ञान पथ का अनुसरण करते हुए