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________________ 162...तप साधना विधि का प्रासंगिक अनुशीलन आगमों से अब तक है। दूसरी बात यह है कि जब तक द्रव्य द्वारा किसी क्रिया से न जुड़ा जाए तब तक हर किसी को भाव भी उत्पन्न नहीं हो सकते। तीसरी बात, शरीर को तो गरिष्ठ भोजन द्वारा हृष्ट-पुष्ट किया जाए और यह सोचे कि आभ्यन्तर शुद्धि रहेगी तो यह सम्भव नहीं लगता, क्योंकि आहार हमारे शरीर और मन दोनों को प्रभावित करता है। शारीरिक राग न्यून नहीं हो, तब तक सेवा आदि कार्य भी नहीं हो सकते। कई लोग यह तर्क करते हैं कि जैन धर्म अहिंसावादी धर्म है फिर अपने शरीर को कष्ट देने अथवा तप आदि करने में हिंसा नहीं है क्या? यह प्रश्न उठाने से पहले हिंसा और अहिंसा की सही परिभाषा समझना आवश्यक है। जिस कार्य से किसी की आत्मा या शरीर पीड़ित हो वह हिंसा है, परन्तु तपस्या में इच्छापूर्वक कष्टों को सहन किया जाता है जो कि कर्म निर्जरा एवं देहासक्ति को न्यून करने में हेतुभूत हैं, यह हिंसा की श्रेणी में नहीं आता। जब व्यक्ति व्यापार आदि सीजन के समय में दिन-दिन भर भूखा रहता है तब वह कष्ट भी उसे प्रिय लगता है, वैसे ही आत्म साधना के इच्छुक आत्मार्थियों के लिए तप आदि की पीड़ा आनन्ददायक होती है। भारतीय ऋषि मुनियों एवं योग साधकों ने अपने साधना एवं अनुभव ज्ञान के आधार पर विश्व संस्कृति को अनेक त्रिकाल प्रासंगिक विधानों से समृद्ध किया, उनकी दृष्टि मात्र आध्यात्मिक या भौतिक विकास तक सीमित नहीं थी, अपितु उसमें शारीरिक स्वस्थता, मानसिक शांतता आदि का भी पुट समाहित रहता था। इस अध्याय के माध्यम से तप का सर्वांगीण स्वरूप दिग्दर्शित करने का प्रयास किया है। सन्दर्भ-सूची 1. जैन धर्म में तप स्वरूप और विश्लेषण, पृ. 93-95 2. दशवैकालिकसूत्र, संपा, मधुकरमुनि, 9/4/10 3. आचारांगनियुक्ति, गा. 283 4. उत्तराध्ययनसूत्र, संपा. मधुकरमुनि, 29/27 5. भगवतीसूत्र, 2/5/16 6. जैन धर्म में तप स्वरूप और विश्लेषण, पृ. 56-64 7. जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भा. 2, पृ. 102
SR No.006246
Book TitleTap Sadhna Vidhi Ka Prasangik Anushilan Agamo se Ab Tak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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