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________________ तप साधना की उपादेयता एवं उसका महत्त्व... 151 के रूप में स्वीकार किया, उसी दिन से बेले - बेले की तपस्या के पारणे आयंबिल तप की आराधना प्रारम्भ कर दी। इसी कठोर तपश्चर्या के द्वारा उनका शरीर अमृत से परिपूर्ण बन गया था। इसी बात को लक्षित करके कहा जाता है कि उनके अंगूठे में अमृत का वास था । सचमुच में तो सम्पूर्ण देह ही इस अमृतत्त्व से युक्त थी; किन्तु शरीरविज्ञान के अनुसार संचरण की दृष्टि से अंगूठे को महत्त्व दिया गया है। शास्त्रकार कहते हैं कि गणधर गौतम ने तप के बल पर ऐसी शक्ति भी अर्जित कर ली थी, जिसके प्रभाव से किञ्चित क्रोध आने पर सोलह महाजन पदों को क्षण भर में भस्मसात किया जा सकता था। इस वर्णन का मूल हार्द यही है कि तप साधना के माध्यम से देहजन्य और चित्जन्य समस्त शक्तियाँ एवं सुख सामग्रियाँ उपलब्ध की जा सकती हैं। वैदिक धर्म की दृष्टि से - वैदिक साहित्य में अनेक स्थलों पर तप का वर्णन देखा जाता है। वहाँ तप की महत्ता का सामान्य वर्णन करते हुए कहा गया है कि तप से जीवन तेजस्वी, ओजस्वी और प्रभावशाली बनता है। वैदिक संहिताओं में तप के लिए 'तेजस्' शब्द व्यवहृत हुआ है। जीवन को तेज व ओजयुक्त बनाने के लिए तपस् साधना की प्रेरणा दी गयी है। वैदिक ऋषि तप के मूल्य का सबलतम उद्घोष करते हुए कहते हैं कि तपस्या से ही ऋत् और सत्य उत्पन्न हुए हैं। 68 तपस्या से ही वेद उत्पन्न हुए हैं।69 तपस्या से ही व्रत खोजा जाता है। 70 तपस्या से ही मृत्यु पर विजय पायी जाती है और ब्रह्मलोक प्राप्त किया जाता है। 71 तपस्या के द्वारा ही तपस्वी जन लोक कल्याण का विचार करते हैं। 72 तपस्या से ही लोक में विजय प्राप्त की जाती है। 73 तप ही मेरी प्रतिष्ठा है। 74 तप के द्वारा ही श्रेष्ठ और परमज्ञान प्रकट होता है। 75 जो तपता है और अपने कर्त्तव्य में संलग्न रहता है वह संसार में सर्वत्र यश को सम्प्राप्त होता है। 76 धर्म के जितने भी अंग हैं चाहे वह ऋत् हो, सत्य हो, तप हो, श्रुत हो, शान्ति हो चाहे दान हो वे सभी तप के ही अंग हैं। 77 तप से आत्मा का साक्षात्कार किया जा सकता है। 78 स्वर्ग सम्प्राप्ति के सप्त द्वारों में प्रथम द्वार तप है79 और तप को केन्द्र बनाकर ही धर्म विकसित हुआ है। इससे भी बढ़कर हिन्दू-परम्परा तो तप रूप साधन को साध्य के तुल्य मानती हुई कहती है कि 'तप ही ब्रह्म है | 80 जैन साधना में भी तप को आत्मिक गुण
SR No.006246
Book TitleTap Sadhna Vidhi Ka Prasangik Anushilan Agamo se Ab Tak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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