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150...तप साधना विधि का प्रासंगिक अनुशीलन आगमों से अब तक
8. माणवकनिधि - इस निधि में योद्धाओं की उत्पत्ति, शस्त्र सामग्री, युद्ध नीति और दण्डनीति का निरूपण है।
9. शंखमहानिधि - इस निधिकल्प में गद्य, पद्य, नृत्य, नाटक आदि का कथन किया गया है।
उक्त नव निधियाँ विशिष्ट तप से प्रकट होती हैं। प्रवचनसारोद्धार के अनुसार प्रत्येक निधि 8-8 चक्र पर प्रतिष्ठित है। इन निधियों की लम्बाई, चौड़ाई एवं ऊँचाई क्रमश: 12, 9 और 8 योजन है। इनका निवास स्थान गंगा नदी का मुख है। जब चक्रवर्ती छह खण्ड को जीतकर अपने नगर में लौटता है तब ये निधियाँ पाताल से निकलकर चक्रवर्ती का स्वत: अनुगमन करती हैं। ये निधियाँ सुवर्णमय हैं। इनके कपाट वैडूर्यमणि से निर्मित हैं तथा ये विविध रत्नों से परिपूर्ण चन्द्र, सूर्य एवं चक्र के आकारों से चिह्नित हैं।67 ___ (iv) गौतम स्वामी को अमृतत्त्व की प्राप्ति- जैन परम्परा में गौतम स्वामी के व्यक्तित्व को एवं उनकी तप साधना को सर्वोत्कृष्ट माना गया है। आज भी गौतमस्वामी का स्मरण श्रद्धा और समर्पण के साथ किया जाता है। उनके सम्बन्ध में एक दोहा बहुत प्रसिद्ध है
अंगूठे अमृत बसे, लब्धितणा भंडार ।
श्री गुरु गौतम सुमरिये, वांछित फल दातार ।। गौतमस्वामी के अंगुष्ठ में अमृत का निवास था और वे लब्धियों के भण्डार थे। इसका मतलब यह है कि तपस्या के द्वारा उनके शरीर का प्रत्येक रोम रसायन बन गया था। उनके शरीर के किसी भी अंग-उपांग से किसी भी वस्तु का स्पर्श होता वह कंचन बन जाती। यह लब्धि उन्हें कठोर तप साधना के द्वारा ही प्राप्त हुई थी।
__ भगवान महावीर ने गौतम गणधर की कठोर तप साधना का वर्णन करते हुए शास्त्रों में स्थान-स्थान पर बताया है - "उग्गतवे- घोरतवे- तत्ततवेमहातवे” अर्थात गौतम उग्र तपस्वी, घोर तपस्वी, तप्त तपस्वी और महा तपस्वी है। अभयदेवसूरि ने भगवती टीका में लिखा है कि “यदन्येन प्राकृत पुंसा न शक्यते चिन्तयितुमपि तदविधेन तपसा युक्तः” अर्थात गौतमस्वामी ऐसा उग्र तपश्चरण करते थे कि साधारण मनुष्य तो उस तपो धर्म की कल्पना भी नहीं कर सकता है। जिस दिन गौतमस्वामी ने भगवान महावीर का शिष्यत्व चारित्र