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142... तप साधना विधि का प्रासंगिक अनुशीलन आगमों से अब तक
से साधक को ऐसी शक्ति प्राप्त हो जाती है कि किसी भी एक इन्द्रिय से पांचों इन्द्रियों का काम कर सकता है। प्रकारान्तर से एक अर्थ यह भी किया गया है कि संभिन्न श्रोतोलब्धि के धारक योगी की श्रोत्रेन्द्रिय इतनी प्रचण्ड हो जाती है। कि वह चक्रवर्ती की विशाल सेना जो बारह योजन में फैली हुई है, उस सैन्य में बजने वाले विविध वाद्यों एवं विविध स्वरों को एक ही साथ अलग-अलग करके सुन सकता है।
सामान्यतया एक साथ हजारों ध्वनियों को पृथक्-पृथक् पहचानना मुश्किल होता है, किन्तु यह लब्धिधारी प्रत्येक ध्वनि को अपने-अपने रूप में पहचान लेता है। अतः सूक्ष्म और दूरस्थ विषय को ग्रहण करने की शक्ति संभिन्न श्रोतालब्धि कहलाती है। 55
7. अवधिलब्धि - अवधि यानी मर्यादा । जिस श्रमण को यह लब्धि प्राप्त होती है उसे इन्द्रियों की सहायता के बिना मात्र आत्मशक्ति से मर्यादा में रहे हुए रूपी द्रव्यों का ज्ञान होता है, अतः इसे अवधिलब्धि कहते हैं।
8. ऋजुमतिलब्धि - मनःपर्यव ज्ञान के दो भेद हैं- 1. ऋजुमति और 2. विपुलमति। अढ़ाई द्वीप में कुछ कम (अढ़ाई अंगुल कम) क्षेत्र में रहे हुए संज्ञी प्राणियों के मनोभावों को सामान्य रूप से जानना ऋजुमति मनःपर्यव ज्ञान है। यह मनोज्ञान जिस लब्धि के कारण से प्राप्त होता है उस लब्धि को ऋजुमति लब्धि कहते हैं।
9. विपुलमतिलब्धि यह मन:पर्यव ज्ञान का दूसरा प्रकार है । सम्पूर्ण अढ़ाई द्वीप में रहे हुए संज्ञी प्राणियों के मनोभावों को स्पष्ट रूप से, सूक्ष्मातिसूक्ष्म विचारों को भी दर्पण की भाँति जान लेना विपुलमति मनःपर्यव ज्ञान है। यह शक्ति जिस लब्धि के निमित्त से प्राप्त होती है, वह विपुलमति लब्धि कहलाती है।
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10. चारणलब्धि 'चारण' एक प्रकार का रूढ़ शब्द है। जैन ग्रन्थों में इसका प्रयोग आकाशगामिनी शक्ति के रूप में हुआ है। तदनुसार इस लब्धि के प्रभाव से श्रमण को आकाश में आने-जाने की विशिष्ट शक्ति प्राप्त होती है, अतः इसे चारणलब्धि कहते हैं।
भगवतीसूत्र में चारणलब्धि के दो भेद बताये गये हैं 561. जंघाचारण और 2. विद्याचारण।